पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५०२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । कहहि परसपर पुर-नर नारी । भलि बनाइ बिधि बात बिगारी । तनकृस मन-दुख बदन-मलीने । बिकल मनहुँ माखी मधु छोने ॥२॥ नगर के स्त्री-पुरुष आपस में कहते हैं कि विधाता ने बात अच्छी बनाकर बिगाड़ दी सब का शरीर दुर्बल मन दुखी और मुख उदास है। वे ऐसे मालूम होते हैं मानों मधु छिन जाने से मक्खियाँ विकल हुई हो ॥२॥ पूर्वार्द्ध में रामराज्याभिषेक चितचाही बात नहीं हुई, उलटे वनवास हुा । बनी बात ब्रह्मा ने बिगाड़ पी 'विषादन अलंकार' है। उत्तरार्द्ध में रामराज्य और मधु, नगर के स्त्री-पुरुष और मक्खी मधु-परस्पर उपमेय उपमान हैं । मधु छिन जाने पर मक्खियाँ व्याकुल होती ही हैं। यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। कर मीजहिँ सिर धुनि पछिताहौँ । जनु बिनु पङ्ख बिहँग अकुलाहौँ। भइ बड़ि भोर भूप-दरबारा । बरनि न जाइ बिषाद अपारा ॥३॥ . हाथ मलते और सिर पीट कर पछताते हैं ऐसा मालूम होता है मानों बिना पर के पक्षी म्याकुल हो । राज-दरवार में बड़ी भीड़ हुई है, अपार विषाद कहा नहीं जा सकता ॥३॥ सचिव उठाइ राउ बैठारें । कहि प्रिय बचन राम पगु धारे ॥ सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी ॥४॥ मन्त्री ने राजा को उठा कर बैठाया और प्यारे वचन कहे कि रामचन्द्रजी आये हैं। सीताजी के सहित दोनों पुत्रों को देख कर राजा बहुत ही व्याकुल हुए ॥४॥ राजा की व्याकुलता के लिए एक रामचन्द्रजी का वन-गमन ही पर्याप्त था। उस पर दो और प्रवल कारण सीताजी और लक्ष्मणजी का वन जाना देख कर भारी व्याकुलता का होना 'द्वितीय समुच्चय अलंकार' है। दो०-सीय सहित सुत सुभग दोउ, देखि देखि अकुलाइ । बारहिं बार सनेह बस, राउ लेइ उर लाइ ॥७॥ सीताजी के समेत सुन्दर दोनों पुत्रों को देख कर राजा घबरा कर स्नेह वश बार बार छाती से लगा लेते हैं । -चौ०-सकइ न बोलि बिकल नरनाहू । सोक-जनित उर दारुन दाहू ॥ नाइ सीस पद अति अनुरांगा । उठि रघुबीर बिदा तब माँगा॥१॥ राजा व्याकुलता से बोल नहीं सकते हैं, उनके हृदय में शोक से भीषण जलन उत्पन्न हुई। तब रघुनाथजी ने अत्यन्त प्रेम से चरणों में सिर नवा उठ कर बिदा माँगी ॥१॥ रामचन्द्रजी ने विचारा कि जबतक मैं यहाँ रहूँगा तबतक महाराज को इसरोत्तर काट बढ़ता जायगा, मेरा चलना ही ठीक है 'वितर्क समचारीभाव' है।