पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. 4 द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड ।। दो-सपने होइ भिखारि नृप, रङ्क नाकपति होइ । जागे लाभ न हानि कछु, तिमि प्रपञ्च जिय जोइ ॥ २ ॥ जैसे सपने में राजा भिक्षुक हो जाय और कनाल इन्द्र की पदवी पा जाय परन्तु भागने पर लाभ हानि कुछ नहीं अर्थात् भिखारी भिखारी ही और राजा राजा ही रहता है, वैसे ही संसार को मन में (स्वप्नवत) समझना चाहिए ॥१२॥ । चौध-अस बिचारि नहिं कीजिय रोषू । काहुहि बादि न देइय दोषू ॥ मोह-निसा सब सावनिहारा । देखिय सपन अनेक प्रकारा ॥१॥ ऐसा विचार कर क्रोध न कीजिये और किसी को व्यर्थ दोष मत दीजिये। अज्ञान रूपी रात्रि में सब (जीव) सोनेवाले हैं, वे अनेक प्रकार के मिथ्या स्वप्न देखा करते हैं ॥ ॥ एहि जग-जामिनि जागाह जोगी। परमारथी बियोगी ॥ जानिय तबहिँ जीव जग जागा । जब सब बिषय-बिलास बिरागा॥२॥ इस संसार रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, वे तत्वदर्शी होते हैं और दुनिया की छलबांजी से अलग रहते हैं । (यहाँ तक शानोपदेश है, आगे वैराग्य प्रतिपादन करते हैं) जगत में जीव को तभी जगा हुआ जानो जय सब विषयानन्दों का त्यागी हो जाय ॥२॥ जब सब विषय विलासों से विराग हो, तब जानो कि जीव संसारी रात से जगा है। ऐसा हो तब ऐसा जानो 'सम्भावना अलंकार है। होइ बिबेक माह भ्रम भोगा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा ॥ सखा परम परमारथ । क्रम बचन राम-पद नेहू ॥३॥ शान होने पर अशान की भ्रान्ति दूर हो जाती है, तब रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे मित्र ! अत्युचम परमार्थ (सारवस्तु) यही है कि मन, कर्म और वचन से रामचन्द्रजी के चरणों में स्नेह हो ॥३॥ साधारण बोत कह कर विशेष सिद्धान्त से उसका समर्थन करना अर्थान्तरन्यास अलंकार है। वैराग्य कह कर अब भक्ति निरूपण करते हैं। राम ब्रह्म परमारथ रूपा । अबिगत अलख अनादि अनूपा ॥ सकल बिकार रहित गत भेदा । कहि नित नेति निरूपहिँ बेदा ॥४॥ रामचन्द्रजी परब्रह्म, परमार्थ के रूप, अनिर्वचनीय, अप्रत्यक्ष, अादि रहित और अनुपम हैं। सम्पूर्ण विकारों से हीन और भेद से 'अलग हैं, जिनको नित्य-स्वरूप इति नहीं कह कर वेद प्रकाश करते हैं॥४॥ शरीरधारी रामचन्द्रजी को परब्रह्म, अलख, अप्राप्य कहने में 'विरोधाभास अलंकार है