पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४६३ दो०-मइके ससुरे सकल सुख, जबहिँ जहाँ मन मान । तह तब रहिहि सखेन सिय, जब लगि विपति-बिहान ॥६॥ नैहर और सासुर में सम्पूर्ण सुख है, जब जहाँ मन चाहे तब वहाँ सुख से सीताजी रहेगी, जवतक विपत्ति रूपी रात्रि का सवेरा न हो ॥१६॥ चौदह वर्ष वनवास की अवधि विपत्ति है, इस पर रात्रि का आरोपण करना रूपक है। उसका बीतना सबेरा रूप है। चौ०-बिनतीभूपकीन्हंजेहि माँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती। पितु सँदेस सुनि कृपानिधाना । सियहि दीन्ह सिख कोटि विधाना॥१॥ राजा ने जिस तरह दुःखित हो कर बिनती की है, वह प्रीति कही नहीं जाती है। कृपा. निधान रामचन्द्रजी पिता के सन्देशे को सुन कर सीताजी को करोड़ों तरह से समझाया ॥१॥ सासु ससुर गुरु प्रिय परिवारू । फिरहु त सब कर मिटइ खमारू । सुनि पति-बचन कहति बैदेही । सुनहु प्रानपति परम-सनेही ॥२॥ हे प्रिये ! यदि तुम लौट जाओ वा सासु, ससुर, गुरु, और कुटुम्बीजनों की सारी व्याकु. लता मिट जाय । पति के वचन सुन कर विदेहनन्दिनी कहती हैं कि-हे परमप्रेमी प्राण नाथ! सुनिये ॥२॥ प्रभु करुनामय परम बिबेकी । तनु तजि रहति छाँह किमि छेकी ॥ प्रभा जाइ कह भानु बिहाई । कह चन्द्रिका चन्द तजि जोई ॥३॥ स्वामिन् ! श्राप दया के रूप और प्रत्युत्तम ज्ञानी हैं, शरीर को छोड़ कर परछाही रोकने से कैसे रह सकती है ? सूर्य को छोड़कर प्रकाश (घाम) कहाँ जा सकता है और चन्द्रमा को त्याग कर चाँदनी कहाँ जायगी? ॥३॥ सीताजी का प्रस्तुत वर्णन तो यह है कि मैं आपका साथ छोड़ कर घर न जाऊँगी, उसे न कह कर केवल उसका प्रतिबिम्ब मात्र वर्णन कर अपना तात्पर्य सूचित किया 'ललित अलंकार' है। प्रत्येक वाक्यों में काकु से भिन्न अर्थ प्रकट होना अर्थात् शरीर को छोड़ कर परछाही अंन्यत्र नहीं रुक सकती, सूर्य को छोड़ कर प्रकाश कहीं नहीं जा सकता, चन्द्रमा को त्याग कर चाँदनी कहीं नहीं जा सकती 'वक्रोक्ति अलंकार' है। जिस बात को कहना चाहती हैं उसे स्पष्ट शब्दों में न कह कर इस ढङ्ग से कहती हैं कि असली बात लक्षित हो रही है यह 'अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार' है। पतिहि प्रेम-मय बिनय सुनाई । कहति सचिव सन गिरा सुहाई ॥ तुम्ह पितु-ससुर-सरिसहितकारी। उत्तर देउँ फिरि अनुचित भारी ॥४॥ पेटभरी बिनती स्वामी को सुना कर मन्त्री से सुहावनी वाणी में कहती हैं। आप पिता और ससुर के समान मेरे हितकारी हैं, फिर मैं उत्तर देती हूँ बड़ा ही अनुचित है | आप की आशा शिरोधार्य करनी चाहिए, यह वाच्यसिद्धाङ्ग गुणीभूत व्यङ्ग हैं। त