पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५२५

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४६६ रामचरित मानस । चलता । रामचन्द्रजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के चरणों में सिर नवा कर इस तरह लोटे जैसे व्यापारी मूलधन (सारी पूँजी) खो कर लौटा हो ॥४॥ दो-रथ हाँकेउ हय राम-तन, हेरि हेरि हिहिनाहि । देखि निषाद बिषाद-बस, धुनहिँ सीस पछिताहिँ ॥ सुमन्त्र ने रथ हाँका, परन्तु घोड़े रामचन्द्रजी की ओर देख देख कर हिनहिनाते हैं (आगे को पाँव नहीं रखते हैं)। यह देख कर निपाद विपाद के वश होकर सिर पीटते हैं और पछताते हैं 1880 घोड़ों की व्याकुलता से निषादों का विकल होना 'द्वितीय उल्लास अलंकार' है। चौ-जासु बियोग बिकल पसु ऐसे । प्रजा मातु पितु जीहहिँ कैसे। बरबस राम सुमन्त्र पठाये । सुरसर-जीर आपु तब आये ॥१ जिनके वियोग से पशु इस तरह व्याकुल हैं तो प्रजा-गण और माता-पिता कैसे जियेंगे? रामचन्द्रजी ने बरजोरी से सुमन्त्र को लौटाया, तब श्राप गहाजी के किनारे पर पाये ॥१॥ पशुओं की व्याकुलता का लक्षण देख कर प्रजा, माता और पिता के जीने में वक्रोक्ति द्वारा यह कहना कि वे न जीवित रहेंगे 'अनुमानप्रमाण अलंकार है। माँगी नाव न केवट आना । कहइ तुम्हार मरम में जाना ॥ चरन कमलरज कहँ सब कहई । मानुष-करनि मूरि-कछु अहई ॥२॥ नाव भाँगी पर मल्लाह नौका नहीं लाता है, वह कहता है कि मैं आप के भेद को जानता हूँ। आप के चरण-कमलों की धूलि को सब कहते हैं कि वह मनुष्य करनेवाली कुछ जड़ी-बूटी है ॥२॥ केवट की आन्तरिक इच्छा पाँव धोने की है, उसको छिपाने की इच्छा से बहाने की वात कहना कि आप के चरणों की धूलि पत्थर, काठ को मनुष्य बना देने के लिए जड़ी-बूटी है 'व्याजोक्ति अलंकार' है। छुअत सिला भइ नारि सुहाई । पाहन न तरनिउँ मुनिघरनी होइ जाई । बाट परइ मारि नाव उड़ाई ॥३॥ जिनके छूते ही पत्थर की चट्टान सुन्दर स्त्री हुई तो पत्थर से बढ़ कर काठ में कड़ाई नहीं होती। नौका भी मुनि की पत्नी हो जायगी, मेरी नाव उड़ जाने से रास्ता पड़ जायगा अर्थात् कोई पथिक पार न जा सकेगा ॥३॥ जय शिला मुनि पत्नी हुई तब काठ किस लेख में है, यह तोहुमा बैठा है 'कन्यार्थापति अलंकार' है । मुमि-घरनी कहने में लक्षणामूलक अगढ़व्या है कि मेरे काम न आकर मुनि के काम आवेगी। काठ कठिनाई॥