पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५४४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । बार बार सब लाहिँ पाये । कहहिँ बचन मृदु सरल सुभाये । । राजकुमारि बिनय हम करही। तिय-सुभाय कछु पूछत डरहीं ॥३॥ सब स्त्रियाँ बार बार पावों में लगती हैं और सहज ही सीधे कोमल वचन कहती हैं। हे राजकुमारी ! मैं कुछ बिनती करना चाहती हूँ, परन्तु स्त्री-स्वभाव से पूछते हुए डरती हूँ ॥३॥ स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी। बिलगन मानवि जानि गँवारी राजकुँअर दोउ सहज सलाने। इन्हत उहि दुति मरकत सोने ॥४॥ हे स्वामिनी ! हमारी ढिठाई क्षमा कीजिये, हमें गवारी समझ कर भिन्न न मानिये। दोनों स्वाभाविक सुन्दर राजकुमार जिनके शरीर से पन्ना (श्यामरन) और सोना कान्ति पाते हैं॥४॥ रामचन्द्रजी और लवमणजी के शरीर-उपमेय, मरकत-मणि और सुवर्ण उपमान हैं। यहाँ उपमान को उपमेय और उपमेय को उपमान करना प्रथम प्रतीप अलंकार' है। दो०-स्यामल गौर किसोर बर, सुन्दर सुखमाअयन । सरद सबरीनाथ-मुख, सरद-सरोरुह-नयन ॥१६॥ श्यामल गौर उत्तम वर्ण किशोर अवस्थावाले सुन्दर शोभा के स्थान, शरदकाल के पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख और शरवऋतु के कमल के समान नेत्र हैं ॥११६॥ चौ०-कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहि तुम्हारे । सुनि सनेहमय मज्जुल-बानी । सकुची सिय मन महँ मुसुक्कानी ॥१॥ हे सुन्दर मुखवाली ! कहिये, करोड़ों कामदेव को लजानेवाले श्राप के कौन हैं ? उनकी स्नेहमयी सुन्दर वाणी सुन सीताजी सकुचा कर मन में मुस्कुराई ॥१॥ सभा की प्रति में 'सकुचि सीय मन महँ मुसुकानो' पाठ है। तिन्हहिँ बिलोकि बिलोकति धरनी । दुहुँ सकोच सकुचति बरबरनी ॥ सकुचि सप्रेम बाल मृगनयनी । बोली मधुर बचन पिक-अयनी ॥२॥ उन स्त्रियों को देख कर धरती की ओर निहारती हैं, उत्तम वर्ण वाली जनकनन्दिनी दोनों सकोच से सकुचाती हैं । बाल-मृग के समान नेत्रवाली और कोकिल के समान वाणीवाली लजाती हुई प्रेम के साथ मधुर वचन बोली ॥२॥ 'धरती' शब्द में लक्षणामूलक गूढ़ व्या है कि पृथ्वी मेरी माता है, इसके सामने मैं कैसे कहूँ कि ये मेरे पति हैं और नहीं बतलाती हूँ तो इन स्त्रियों का प्रेम-भङ्ग होगा! युक्ति से स्वामी का परिचय कराना मन में निश्चय कर के बोली। सहज सुभाय सुभग तन गोरे । नाम ' लखन लघु देवर मारे । बहुरि बदन-बिधु अञ्चल ढाँकी । पिय-तन चितइ भौंह करि बाँकी ॥३॥ जो सहज स्वभाववाले सुन्दर गौर शरीर हैं, उनका लक्ष्मण नाम है और वे मेरे छोटे