पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचरित मानस । ४०४ देवर हैं। फिर अपने चन्द्र-मुख को आँचर से छिपा कर प्रीतम की ओर निहार भैहि टेड़ी कर के (विकृत हाव द्वारा) ॥३॥ लघु देवर कहने से सीताजी का गृह अभिप्राय यह है कि इनसे बड़े देवर भी है। यह कल्पित प्रश्न का 'गूढोत्तरप्रलंकार' है। तिरीछे नयननि । निजपतिकहेउ तिन्हहि सिय सयननि ॥ भई मुदित सब ग्राम-नधूटी । रङ्कन्ह राय-रासि जनु लूटी ॥४॥ खान के समान सुन्दर नेत्रों के तिरछी चितवन में इशारे से सीताजी ने उनसे कहा कि ये हमारे खामी हैं। सब ग्राम निवासिनी स्त्रियाँ प्रसन्न हुई, वे ऐसी मालूम होती है मानों दरिद्रों ने राजभण्डार लूट में पाया हो || स्वामी का परिचय सीताजी ने आँख के इशारे से कराया, मुख से बोली नहीं । पर वे स्त्रियाँ समझ कर प्रसन्न हुई 'युक्ति अलंकार' है। दो०-अति सप्रेम सिय पाय परि, बहु बिधि देहि असोस । सदा सोहागिनि होहु तुम्ह, जब लगि महि अहि-सीस ॥११॥ अत्यन्त प्रम के साथ सीताजी के पाँव में पड़ कर बहुत तरह आशीर्वाद देती है कि जय तक पृथ्वी शेष के सिर पर रहे तव तक आप सदा लोहागिनी है। ॥१७॥ चौ०- पारबती सम पति प्रिय होहू । देवि न हम पर छाड़ब छोहू ॥, पुनि पुनि बिनय करिय कर जोरी । जौं एहि मारग फिरिय बहोरी॥ आप पार्वतीजी के समान पति को प्यारी हो, हे देवि! हम पर स्नेह न छोड़ना । बार बार हाथ जोड़ कर बिनती करती हूँ कि यदि फिर इसी मार्ग से लौटिये तो ॥२॥ दरसन देव जानि निज-दासी। लखी सीय सब प्रेम-पियासी । मधुर बचन कहि कहि परतोषी । जनु कुमुदिनी कौमुदी पाषी ॥२॥ हमें अपनी दासी समझ कर दर्शन देना, सीताजी ने सब को प्रेम की प्यासी देखा, तब भीठे वचन कह कह कर सन्तुष्ट किया, वे ऐली मालूम होती हैं मानो कुमुदिनी को चाँदनों ने खिला दी हो ॥२॥ तबहिं लखन रघुबर रुख जानी। पूछेउ मग लोगन्हि · मृदु बानी ॥ सुनंत नारि-नर भये दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी ॥३॥ तब रघुनाथजी का रुख जान कर लक्ष्मणजी ने कोमल वाणी में लोगों से रास्ता पूछा। सुनते ही स्त्री-पुरुष दुःखी हुए, उनका शरीर पुलकित हो गया और आँखों में जल भर रघुनाथजी ने न तो कुछ कहा और न प्रत्यक्ष कोई संकेत किया, परन्तु लक्ष्मणजी उनकी मानसिक चेष्टा को ताड़ कर लोगों से आगे जाने का माग पूछो सूक्ष्म अलंकार' है । प्राया ॥