पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५४७

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$5$ रामचरित-मानस । दो-जी ये मुनि-पट-धर जटिल, सुन्दर सुठि सुकुमार । बिबिध भाँति भूषन बसन, बादि किये करतार ॥११॥ ये अत्यन्त सुन्दर सुकुमार यदि मुनियों के वस्त्र और जटा धारण किये हैं तो नाना प्रकार के गहने और कपड़े नाशा ने नाहक ही बनाये ॥ ११ ॥ चौ०-जौँ ये कन्द मूल फल खाहौँ । बादि सुधादि असन जग माहीं । एक कहहिँ ये सहज सुहाये । आपु प्रगट भये विध न बनाये ॥१॥ यदि ये, कन्द, मूल, फल खाते हैं तो संसार में अमृत आदि भोजन व्यर्थ है । कोई कहते हैं कि ये सहज सुहावने श्राप ही प्रकट हुए हैं, इन्हें विधाता ने नहीं बनाया है ॥१॥ ये ब्रह्मा के धनाये नहीं हैं, इस शुद्धापर्धांति में यह कारण दिखाना कि ऐसी सुन्दरता ब्रह्मा नहीं बना सकते ये स्वयम् प्रकट हुए हैं 'हेत्वापद्दति अलंकार' है। जह लगि बेद.कही विधि करनी । खवन नयन मन गोचर बरनी । देखहु खोजि भुअन दस-चारी । कहँ अस पुरुप कहाँ असि नारी ॥२॥ जहाँ तक वेदों ने बला की करनी कही है और कान. पाँच तथा मन से प्राप्त होना कहा है। चौदहों लोकों में खोज कर देनो ऐसा पुरुष कहाँ ओर ऐसी स्त्री कहाँ है ॥ २॥ इन्हहिँ देखि विधि मन अनुरागा। पटतर जोग बनावन लागा ॥ कीन्ह बहुत स्लम अइक न आये। तेहि इरिषा धन आनि दुराये ॥३॥ इन्हें देख कर ब्रह्मा के मन में प्रीति हुई और बराबरी के योग्य ( पुरुष-स्त्री) बनाने लगे। बहुत परिश्रम किया पर अहक (अटकल) नहीं पाया, इसी डाह से इन्हें वन में लाकर छिपाया है ॥३॥ रामचन्द्रजी के वन में आने की बात को हेतु-सूचक युक्तियों से समर्थन करना 'काव्य- लिङ्ग अलंकार' है। व्यज्ञार्थ में 'ललितप्रेक्षा' है। एक कहहिँ हम बहुत न जानहिँ । आपुहि परम धन्य करि मानहि ॥ ते पुनि पुन्य-पुज हम लेखे । जे देखहिँ देखिहहिं जिन्ह देखे nen कोई कहते हैं हम बहुत नहीं जानते, अपने को अतिशव धन्य कर के मानते हैं, फिर हमारे लेख वे पुण्य की राशि हैं जो इन्हें देखते हैं, आगे देखेंगे और पहले देखा है ॥४॥ दो-एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय, लेहि नयन भरि नीर । किमि चलिहहिँ मारग अगम, सुठि सुकुमार सरीर ॥१२०॥ इस तरह प्रिय वचन कह कह कर उनकी आँखों में आँसू भर आते हैं और मापस में कहते हैं कि ये अत्यन्त सुकुमार शरीरवाले दुर्गम रास्ते में कैसे चलेंगे ? ॥ १२० ॥