पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५५९

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रामचरित-मानस अत्रि आदि मुनिवर बहु बसही। करहिं जोग जप तप तन कसहीं। चलहु सफल बम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिवरहू ॥१॥ अत्रि आदि बहुत से मुनिवर वहाँ वप्तते हैं, वे योग जप और तप कर के शरीर को शुद्ध करते हैं। हे रामचन्द्रजी! वहाँ चल कर सब के परिश्रम को सफल कीजिये और पर्वत को भी बड़ाई दीजिये ॥ ४॥ दो०-चित्रकूट महिमा अमित, कही महामुनि गाइ । आइ नहाने सरित-बर, सिय समेत दोउ भाइ ॥ १३२ ॥ महामुनि वाल्मीकि ने चित्रकूट की बहुत बड़ी महिमा बखान कर कही । सीताजी के, सहित दोनों वन्धुओं ने पाकर श्रेष्ठनदी ( मन्दाकिनी ) में स्नान किया ॥ १३२ ॥ चौ०-रघुबर कहेउ लखन भल घाटू । करहु कतहुँ अवठाहर ठाटू ॥ लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा॥ रघुनाथजी ने कहा-लक्ष्मण ! यह घाट अच्छा है, कहीं ठहरने का प्रबन्ध करो। लक्ष्मणजी ने पयस्विनी-नदी के उत्तर किनारे को देखा वहाँ चारों ओर धनुप जैसा नासा फिरा हुआ है॥१॥ सभा की प्रति में 'करहु कतहुँ अब ठाहर ठाई पाठ है । यद्यपि अर्थ दोनों का एक ही है, इसमें 'अब समयानुकूल शब्द निकलता है । परन्तु अवठाहर' एकशब्द है, जैसे-अवगा- हन, अवस्थापन अवलेप, अवघात आदि। नदी पनच सर सम दम दाना । सकल कलुष-कलि साउज नाना ॥ चित्रकूट जनु अचल अहेरी । चुकइ न घात मार मुठभेरी ॥२॥ (नाला धनुष है और) नदी प्रत्यंचा (धनुष की डोरी) है और सम. दम, दान पाय रूप हैं, कलि के सम्पूर्ण पाप नाना प्रकार के सँवजा (शेर, चीता, तदुश्रा आदि शिकार के जन्तु) हैं । ऐसा मालूम होता है मानों चित्रकूट पर्वत अचल शिकारी है, वह निशाना मारता है कि चार चूकता नहीं ॥२॥ अहेरी और चित्रकूट (कामतानाथ ) का कवि ने साङ्ग रूपक बाँधा है और उसी की उत्प्रेक्षा की है । इस पवित्र स्थल में पापों का नाश होता ही है, परन्तु जड़ पर्वत का निशाना लगाना श्रसिद्ध आधार है ! इस अहेतु में शिकारीपन के हेतु की कल्पना करना 'असिब विषया हेतूप्रेक्षा अलंकार' है 'मुठभेरी शब्द सामने को पर्यायी है। अस कहि लखन ठाउँ दिखरावा । थल बिलोकि रघुबर सुख पावा । रमेउ राम मन देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति-प्रघाना ॥३॥ ऐसा कह कर लक्ष्मणजी ने स्थान दिखलाया, उस जगह को देख कर रघुनाथजी प्रसन हुए । देवताओं ने समझा रामचन्द्रजी का मन यहाँ रमा, तब वे प्रतिष्ठित करने में प्रधान देवता (विश्वकर्मा आदि) के सहित चित्रकूट को चले ॥३॥