पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५७२

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1 प्रथम सोपान, अयोध्याकाण्ड । दोष सचिव आगमन सुनत सत्र, बिकल भयउ रनिवास ॥ भवन भयङ्कर लोग तेहि, मानहुँ प्रेत-निवास ॥ १४७ ॥ मन्त्री का आगमन सुनते ही सब रनिवास व्याकुन हुआ। उसको राजमहल ऐसा भयावना मालूम होने लगा मानों प्रेतों का निवास (श्मशान) हो ॥१४॥ दुखदायी घटना से घर का भयंकर लगना सिद्ध आधार है, परन्तु राजमहल श्मशान नहीं है। इस हेतु को हेतु ठहराना 'सिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार' चौ०-अति आरति सब पूछहिँ रानी । उतरन आवविकल भइ बानी ॥ सुनइ न लवन नयन नहिँ सूझा। कहहु कहाँ नृप जेहि तेहि बूझा ॥१॥ अत्यन्त दुःख से सब रानियाँ पूछती हैं, पर सुमन्त्र से जवाब नहीं आता। उनकी वाणी विकल हो गई ।न कान से सुनते हैं और न आँख से सूझता है, जिससे तिससे पूछते हैं कि राजा कहाँ है? ॥१॥ दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई । कौसल्या-गृह गई लेवाई। जाइ सुमन्त्र दीख कस राजा । अमिय रहित जनु चन्द विराजा ॥२॥ दासियों ने मन्त्री की व्याकुलता देखी, फिर उन्हें नौशल्याजी के मन्दिर में लिवा खे गई । सुमन्त्र ने जाकर राजा को देखा, वे कैसे मालूम होते हैं मानों विना अमृत के चन्द्रमा विराजते ही ॥२॥ चन्द्रमा का भूमि पर अमृत-हीन विराजना केवल कवि की कल्पना मात्र है। ऐसा दृश्य जगत में दृश्यमान नहीं 'अनुक्तविषया वस्तूप्रेक्षा अलंकार' है। 'अमिय रहित' शब्द से आयु की अल्पता सूचित करना तुल्वप्रधान गुणीभूत व्यङ्ग है ! आसन सयन बिभूषन हीना । परेउ भूमितल निपट भलीना ॥ लेइ उसास सोच एहि भाँती.। सुरपुर-ते जनु खसेउ जजाती ॥३॥ आसन, शय्या और आभूषणों से रहित निरे उदास धरती पर पड़े हैं। सोच से लम्बी साँस लेते हैं, वे इस तरह मालूम होते हैं माने देवलोक से ययाति गिरे हो ॥३॥ पुराणाक्ति के अनुसार राजा ययाति स्वर्ग से पृथ्वी पर गिरे ही थे। यह 'उकविषयो वस्तू- स्प्रेक्षा अलंकार' हैं। राजा ययाति अपने सत्कमों के प्रभाव से स्वर्ग में गये । इन्द्र को भय हुना कि इन्द्रासन के अधिकारी राजा का यहाँ रहना ठीक नहीं । इन्द्र ने चालाकी से पूछा कि आपने कौन कौन ले पुण्य किये जिससे इस पद को पहुंचे हैं। राजा ययाति ने इस धोखेबाजी को सोचा नहीं, अपने सम्पूर्ण सुक्रतों का वर्णन किया। अपने मुख से अपना सुकृत कहने से उनका पुण्य नष्ट हो गया, तब इन्द्र ने उन्हें पुनः धरती पर ढकेलवा दिया जिससे राजा को बड़ा भारी सन्ताप हुश्रा।