पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५८४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५२३ राजा की मृत्यु पर केकयी ने दिखैात्रा आँसू आँखों में भर लिये; किन्तु वह अयथार्थ शोक होने से करुणारसाभास है। 'विचारी' शब्द में लक्षणामूलक गूढ़ ब्यङ्ग है कि यदि यह विचारनेवाली न जताती तो मुझे न सूझता; मैं ने सब काम बनाया। बीच में ब्रह्मा ने एक बात बिगाड़ दिया, इससे गुण अपना और दोष विधाता का व्यक्षित करने की ध्वनि है। सुनत भरत भये बिबस बिषादा । जनु सहमे कंरि केहरि नादा । तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल मारी॥२॥ सुनते ही भरतजी विषाद के वश हो गये वे ऐसे मालूम होते हैं मानी सिंह का गर्जन सुनकर हाथी डर गया हो। हाय पिता ! हाय तात ! हाय पिता ! पुकार कर बहुत ही व्याकुलता से धरती पर गिर पड़े ॥२॥ चलत न देखन. पायउँ ताहो । तात न रामहि सौंपेहु माही । बहुरि धीर धरि उठे सँभारी । कहु पितु मरन हेतु महतारी ॥३॥ चलते समय मैं आपको देख न पाया, हाय पिताजी! आपने मुझे रामचन्द्रजी को सौपा नहीं । फिर धीरज धारण करके संभाल कर उठे और बोले-हे माता पिता के मरने का कारण कह ॥३॥ माता ने पहले कहा है कि कुछ काज ब्रह्मा ने बीच में विगाड़ा, भरतजी को होश आया कि कोई इससे भी पढ़कर तो अनिष्ट नहीं हुआ। इस शङ्का के निवारणार्थ माता से पूछना वितर्क सवारीभाव है। सुनि सुत बचन कहति कैकेई । मरम' पाँछि जनु माहुर देई ॥ आदिहु त सब आपनि करनी । कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥४॥ पुत्र के वचन सुन केकयी कहती है, ऐसा मालूम होता है मानो घाव को चीर कर माहुर (विष) लगाती हो । कुटिला और कठोर बुद्धिवाली प्रसन्न मन से अपनी करनी श्रादि से लेकर अन्त तक सब कह गई ॥३॥ राजा की मृत्यु कंह भरतजी के हृदय में धाव कर दिया । श्रथ रामचन्द्रजी का बनवास वर्णन कर उस धाव में ज़हर का भरना है। घाव में विष का देना लिद अधिार है, परन्तु केकयी के वचन में विष की कल्पना कर इस अहेतु को हेतु ठहराना 'सिद्ध विषया हेतत्प्रेक्षा अलंकार' है । पाँछि शब्द का चीरना अर्थ है, सभा की प्रति में 'पाछि पाठ है। अर्थ उसका भी यही है। दो०--भरतहि बिसरेउ पितु-मरन, सुनत राम-बन-गौन । हेतु अपनपउ जानि जिय, थकित रहे धरि मौन ॥१६०॥ रामचन्द्रजी का वनगमन सुनते ही भरतजी को पिता का मरना भूल गया। इस अनर्थ का कारण अपने को मन में जान कर ध्याकुलता से अवाक् हो गये ॥१६०॥