पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५८६

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. द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५२५ चौ०-जब त कुमति कुमत जिय ठयऊ। खंड खंड होइ हृदय न गयऊ ॥ बर माँगत मन भइ नहिं पीरा । गरिन जीह मुंह परेउ न कीरा॥१॥ अरी कुबुद्धी । जव तॆ ने ऐसा कुमत मन में ठाना, तब तेरा हृदय टुकड़े टुकड़े नहीं हो गया ? वर मांगते मन में पीड़ा नहीं हुई, जीभ गल नहीं गई और मुख में कीड़े नहीं पड़ गये ! ॥१॥ भूप प्रतीति तारि किमि कोन्ही। मरनकोल विधि मति हरि लोन्ही । बिधिहु न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट-अध-अवगुन-खानी ॥२॥ राजा ने तेरा विश्वास कैसे किया, मरणकाल पाने से विधाता ने उनकी बुद्धि हर लिया। स्त्री के हृदय की गति ( कुचाल ) को ब्रह्मा भी नहीं जानते, क्योंकि वह सम्पूर्ण कपट, पाप श्रार दोषों की खान होती है ॥ २॥ स्त्री के मन की गति विधाता नहीं जानते, इसका समर्थन हेतु सूचक बात कह कर करना कि वह सारी धोखेबाज़ी, अत्याचार और अवगुणों की खानि होती है 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है । स्त्री की निन्दा से राजा और ब्रह्मा में अनभिज्ञता का दोष प्रकट होना 'द्वितीय व्याजनिन्दा अलंकार' है। सरल सुसील धरम-रत राज । सो किमि जानइ तीय सुभाऊ ॥ अस को जीव-जन्तु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रान-प्रिय नाहीं ॥३॥ राजा सीधे स्वभाव के शीलवान और धर्म में तत्पर, फिर वेस्त्री के स्वभाव (छलबाज़ी) को कैसे जानते ! ऐसा कौन जीव-जन्तु संसार में है जिसको रघुनाथजी प्राण-प्रिय नहीं हैं ॥३॥ ऊपर फह आये हैं कि राजा ने तेरा विश्वास कैसे किया, मरते समय ब्रह्मा ने उनकी बुद्धि हर ली । इस कथन का निषेध कर दूसरी बात कहना कि वे सीधे, सुशील, धर्मात्मा थे फपट की चाल को कैसे जानते 'उताक्षेप अलंकार' है। 'जीव-जन्तु' शब्द में पुनरुक्तिवदामास अलं- मे अति अहित राम तेउ ताही। को तू अहसि सत्य कहु माही । जो हसि सो हसि मुँह मसि लाई । आँखि ओठ उठि बैठहि जाई ॥४॥ वे ही रामचन्द्रजी तुझे बड़े शत्रु (अप्रिय ) हुए तो तू कौन है ? मुझ से सत्य कह । जो है सो है, मुख में कालिख लंगा कर उठ जा और मेरी आँख की आड़ में बैठ॥४॥ दो-राम-बिरोधी-हृदय तें, प्रगट कीन्ह बिधि मोहि । मा समान को पातकी, बादि कहउँ कछु ताहि ॥१६॥ रामचन्द्रजी के विरोधी हृद्य से ब्रह्मा ने मुझे उत्पन्न किया है, मेरे समान दूसरा कौन पापी है ? मैं तुझे व्यर्थ ही क्यों कुछ कहूँ ॥ १२ ॥ केकयी के उदर से जन्म लेने के कारण भरतजी का अपने को पापात्मा स्थापित करना 'अर्थापत्ति प्रमाण अलंकार' है। कार है। "