पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५८७

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५२६ रामचरित मानस । चौफ-सुनि सत्रुधन मातु कुटिलाई । जरहिँ गात रिस कछु न बसाई । तेहि अवसर कुबरीतह आई। बसन जिभूषन विविध बनाई ॥१॥ माता की कुटिलता को सुन कर शत्रुहनजी के अकोध से जल रहे हैं, पर कुछ वश नहीं चलता है। उसी समय वहाँ अनेक प्रकार के वस्त्राभूषण से सजी हुई कुबरी आई ॥१॥ लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई । बरत अनल घृत आहुति पाई ॥ हुमगि लात तकि कूबर मारा । परि मुंह भरि महि करत पुकारा॥२॥ उसे देख कर लक्ष्मणजी के छोटे भाई ( शनहनजी ) क्रोध से भर गये, ऐसा मालूम होता है मानों जलती हुई भाग घी की आहुति पा गई हो । उछल कर कुबर को वाक कर लात मारा जिससे चिल्लाती हुई वह मुँह के बल धरती पर गिर पड़ी ॥२॥ बिना वाचक पद के उत्प्रेक्षा है । शत्र हनजी भाता की कुटिलता. पर कुपित हो रहे थे, अग्नि में घी की आहुति पड़ने से ज्वाला प्रचण्ड होती ही है। यह ललित उक्तविषया घस्तत्प्रेक्षा अलंकार' है । शत्रुहनजी का लात मारना और मन्धरा का मुँह के बल गिरना, कारण और कार्य एक साथ प्रकट होना 'शक्रमातिशयोक्ति अलंकार है। कूबर टूटेउ फूट कपारू । दलित-दसन मुख रुधिर-प्रचारू । आह दइव मैं काह नसावा । करत नीक फल अनइस पावा ॥३॥ कूबर टूटा, कपाल फूट गया, दाँत गिर गये और मुख से रक बहने लगा! वह बोली-दाय दैव! मैं ने क्या बिगाड़ा अच्छा करते चुरा फल पाया ! ॥३॥ सुनि रिपुहन लखि नख-सिख खोटी । लगे घसीटन धरि धरि झाँटो । भरत दयानिधि दोन्हि छुड़ाई । कौसल्या पहि गे दोउ भाई ॥४॥ उसकी बात सुन कर शत्रुहनजी ने देखा कि यह नख से शिखा पर्यन्त खोटी है, तब उसकी झोटी (बाल) पकड़ पकड़ कर घसीटने लगे । दयानिधान भरतजी ने छुड़ा दिया और धोनों भाई कौशल्याजी के पास गये ॥४॥ दो-मलिन-बसन बिबरन बिकल, इस सरीर दुख भार । कनक कलप बर घेलि बन, मानहुँ हनी तुसार ॥ १६३ ॥ मैला वन पहिने, दुति होन, दुर्वल शरीर, दुःख के बोझ से विकल हैं। वे ऐसी मालूम होती हैं मानों सुवर्ण निर्मित श्रेष्ठ लता-समूह को पाले ने यार दिया.हो ॥१६३॥ सुवर्ण से बनी लता का बन होता नहीं, यह कवि की कल्पना मात्र 'अनुक्तविषया वस्तुत्प्रेक्षा अलंकार' है। चौo-भरतहि देखि मातु उठि धाई । मुरछित अवनि परो भइँआई ॥ देखत भरत बिकल भये भारी। परे चरन तन दसा बिसारी ॥१॥ भरतजी को देख कर माता उठ कर दौड़ी, किन्तु झलमला कर मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी। देखते ही भरतजी बहुत व्याकुल हुए, शरीर की सुध भूल कर चरणों में पड़े ॥१॥