पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५९१

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रामचरित मानस चौo-बेचहिँ बेद धरम दुहि लेही । पिसुन पराय पाप कहि देहीं । कपटी कुटिल कलह-प्रिय क्रोधी । बेद-विदूषक घिस्व-बिरोधी ॥१॥ जो वेद को वेचते हैं, धर्म को दुह लेते हैं और चुगुलखोर पराये पाप को कह देते हैं। छली, कुटिल, कलह-प्रेमी, क्रोधी, वेद की निन्दा करनेवाले और जगत भरके विरोधी ॥१॥ वेद का वेंचना तनख्वाह लेकर या किसी प्रकार की वस्तु आदि लेने की बात ठहरा कर वेद को पढ़ाना । धर्म का दुहना-कन्या-विक्रय करना, अथवा लड़की बेंचनेवाले और खरीदनेवाले के बीच अगुबई करके द्रव्य लेना, दोनों प्रकार के मनुष्य धर्म के दुइनेवाले कहे जाते हैं। लोभी लम्पट लोलुप-धारा । जे तांकहिँ पर-धन पर-दोरा । पावउँ मैं तिन्ह कै गति घोरा । जौं जननी यह सम्मत मारा ॥२॥ जो लोभी, व्यभिचारी और लालच के दास हैं, पराये धन और परायो-खो को देखते (अपनाने का उद्योग करते) हैं। हे माता ! यदि यह मेरा सम्मत हो तो उनकी विकराल गति को मैं पाऊँ ॥२॥ जे नहिं साधु-सङ्ग ‘अनुरागे । परमारथ-पथ बिमुख अभागे ॥ जे न अजहि हरि नर-तनु पाई । जिन्हहिं न हरि-हर-सुजस सुहाई ॥३॥ जिनका सज्जनों के सा में प्रेम नहीं और जो अभागे परमार्थ के रास्ते से विमुख है। जो मनुष्य का शरीर पाकर भगवान को नहीं भजते हैं, जिनको विष्णु और शिवजी का सुयश नहीं अच्छा लगता ॥३॥ तजि खुति-पन्थ बाम-पथ चलहीं । बजुक बिरचि बेष जग छलहीं । तिन्ह कइ गति माहि सङ्कर देऊ । जननी जी यह जानउँ भेऊ ॥४॥ जो वेदमार्ग को त्याग कर वाममार्ग में चलते हैं और अच्छा वेश बना कर संसार को धोखा देकर उगते हैं । हे माता ! यदि मैं इसका भेद जानता होऊँ तो शकरजी मुझे उनकी गति दें ॥४॥ वेदपथ-समातन-धर्म, वर्ण के अनुसार साविकीवृत्ति में अनुरक्त पवित्र भावरण करना। वामपथ-मदिरापान, मांस भक्षण, परस्त्री-गमन आदि दुष्कर्मों में अनुरक्त होकर उसे मौत का साधन मानना। दो- -मातु भरत के बचन सुनि, साँचे सरल सुभाय । कहति राम-प्रिय तात तुम्ह, सदा बचन मन काय ॥१६॥ भरतजी के स्वाभाविक सच्चे सीधे वचनों को सुन कर माताजो कहती हैं कि-हे पुत्र ! श्राप सदा मन क्रम वचन से रामचन्द्र के प्यारे हैं ॥१६॥