पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

7 1 A रामचरित-मोनस । दो-आपनि दारुन दीनता, कहउँ सबहि सिर नाइ । 'देखे बिनु रघुनाथ पद, जिय के जरनि न जाइ ॥१२॥ मैं अपनी कठिन दीनता सब को मस्तक नवा कर कहता हूँ कि बिना रघुनाथजी के चरणों को देके मेरे जी की जलन न जायगी ॥१२॥ चौ०-आन उपाय माहि नहिं सूझा । को जिय कै रघुबर बिनु बुझा॥ , एकहि आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं ॥१॥ दूसरा उपाय मुझे नहीं सुझता है, रघुनाथजी के विना मन की बात कौन समझ सकता है ? मन में एक यही निश्चय होता है कि सवेरे मैं प्रभु रामचन्द्रजी के पास चलूंगा ॥१॥ जद्यपि मैं अनभल अपराधी । भइ मोहि कारन सकल उपाधी ॥ तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेखी॥२॥ यद्यपि मैं बुराई का अपराधी हूँ, सारा उपद्रव मेरे ही कारण हुआ है । तथापि शरण में आया सामने मुझे देख सब क्षमा कर के विशेष कृपा करेंगे ॥२॥ सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ । कृपा-सनेह-सदन रघुराज अरिहु कअनमल कीन्ह न रामा । मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा ॥३॥ रघुनाथजी शीलवान, संकोची, अत्यन्त सीधे स्वभाववाले, दयां और स्नेह के स्थान है। रामचन्द्रजी ने शत्रु की भी बुराई नहीं की, यद्यपि मैं टेढ़ा है तो भी बालक सेवक हूँ (समा करेंगे) ॥३॥ तुम्ह पै पाँच मार भल मानी। आयसु आसिष देहु सुवानी ॥ जेहि सुनिबिनय माहि जनजानी। आवहिं बहुरि राम रजधानी ॥४॥' पर श्राप पञ्च लोग इसी में मेरी भलाई मान सुन्दर वाणी से श्राशा और आशीर्वाद दीजिये कि जिसमें विनती सुन कर और मुझे अपना सेवक जान कर रामचन्द्रजी राजधानी में दो-जद्यपि जनम कुमातु तँ, मैं संठ सदा सदोस । आपन जानिन त्यागिहहि, मोहि रघुबीर भरोस ॥१८३॥ यद्यपि कुमाता से मेरा जन्म है और मैं दुष्ट सदा दोषों से भरा हूँ। पर मुझे रघुनाथजी का भरोसा है कि अपनी जान कर न त्यागेंगे ॥ १३ ॥ चौ०-भरत बचन सब कह प्रिय लांगे । राम-सनेह-सुधा जनु पागे॥ लोग बियोग विषम बिष दागे । मन्त्र सबीज सुनत जन जागे॥१॥ भरतजी के वचन सब को प्रिय लगे, ऐसा मालूम होता है मानो वह रामचन्द्रजी के स्नेह लौट आचें ॥४॥