पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६०६

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रूपी अमृत 1 द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५४५ से सना हो । लोग विरह रूपी भीषण विष से जलते थे, ऐसा जान पड़ता है मानों प्रभावशाली मन्त्र सुन कर सचेत हो गये हो ॥१॥ स्नेह कोई द्रव पदार्थ नहीं जो वचनों को लान सके, यह केवल कवि की कल्पनामान 'अनुक्तविषया वस्तप्रत्प्रेक्षा अलंकार' है। विष से मूर्छित मनुष्य प्रभावशाली मन्त्र ले चैतन्य होते ही हैं 'उक्तविषया वस्तत्प्रेक्षा अलंकार' है । राजापुर की प्रति में चौपाई का दूसरा और तीसरा चरण नहीं है। मालूम होता है नकल करते समय छूट गया है। मातु सचिव गुरु पुर नर नारी । सकल सनेह बिकल भये भारी । भरतहि कहहिं सराहि सराही । राम-प्रेम मूरति तनु आही ॥२॥ माताएँ, मन्त्री, गुरु और नगर के स्त्री-पुरुष सब स्नेह से भारी विकल हुए । बार बार भरतजी की सराहना कर के कहते हैं कि भरत रामचन्द्रजी के प्रेम के साक्षात् मूर्तिमान शरीर ही हैं ॥२॥ तात भरत अस काहे न कहहू । प्रान समान राम प्रिय अहहू । जो पांवर अपनी जड़ताई। तुम्हहिँ सुगाइ मातु कुटिलाई ॥३॥ हे तात भरत ! ऐसा क्यों न कहो, आप रामचन्द्रजी को प्राण के समान प्रिय हो । जो नीच अपनी मूर्खता से माता का कुटिलता का सन्देह तुम्हारे ऊपर करेगा ॥३॥ सो सठ कोटिक-पुरुष समेता । बसहिँ कलप-सत नरक-निकेता ॥ अहि-अघ अवगुननहिँ मनिगहई । हरइ गरल दुख-दारिद. दहई ॥४॥ वे दुष्ट करोड़ी पुरुषों (सम्बन्धियों) के सहित सौ कल्प पर्यन्त नरक स्थान में बसते हैं। साँप के पाप और दुगुणों को मणि नहीं ग्रहण करतो, वह विष और दुःख-दरिद्र का नाश कर देती है ॥ साँप की मणि विष के साथ रहती है। किन्तु विषका नहीं ग्रहण करती। उलटे साँप के जहर को हरती और दुःख-दरिद्र का नाश कर देती है, अतद्गुण अलंकार है। केकयी और सर्प, रामविरह और विष, पाप और राजहिंसा, दुगुण और परोत्कर्ष का असहन क्रोध, भरत के विचार और विष-दुःख-दरिद्र का नाश परस्पर उपमेय उपमान हैं। जिनके वचन सुन मृतप्राय अयोध्यायासी सजीव हो गये। दो-अवसि चलिय बन रामजहँ, भरत मन्त्र भल कीन्ह । सोक सिन्धु बूढ़त सबहि, तुम्ह अवलम्बन दोन्ह ॥ १८४ ॥ हे भरतजी आपने बहुत अच्छी सलाह को, जहाँ रामचन्द्रजी वन में हैं अवश्य ही वहाँ चलिये । शोकसागर में डूबते हुए आपने सभी को सहारा दिया ॥१॥ चौ०-भासब के मन माद न थोरा । जनु धन धुनि सुनि चातक-मारा। चलत प्रात लखि निरनउ नीके । भरत प्रान-प्रिय भे सबही के ॥१॥ सब के मन में थोड़ा आनन्द नहीं हुआ,वे ऐसे प्रसन्न मालूम होते हैं मानों मेघ का शब्द