पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५७६ रामचरित मानस । दो०-राम सकोची प्रेम-बस, भरत सुप्रेम पयोधि । बनी बात बिगरन चहति, करिय यतन छल-सोधि ॥२१॥ रामचन्द्रजी सङ्कोची और प्रेम के अधीन हैं, भरत सुन्दर प्रेम के समुद्र हैं। बनी हुई बात बिगड़ना चाहती है, इसलिये छल से खोज कर कोई उपाय करना चाहिये ॥२१७ चौ० बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने । सहस-नयन बिनु लोचन जाने ॥ कह गुरु बादि छाम छल छाँडू । इहाँ कपट करि होइय भाँडू ॥१॥ इन्द्र के वचन सुन फर वृहस्पतिजी मुस्कुराये और मन में कहा कि-हज़ार नेत्र होने पर भी इन्द्र बिना आँख का है। तब गुरु ने प्रत्यक्ष में कहा कि व्यर्थ की घबराहट और छल करने का विचार छोड़ दो, यहाँ कपट करके भाड़ होना पड़ेगा अर्थात् एक भी छल न च. लेगा सदा के लिये उपहालाल्पद होगे ॥१॥ इस चौपाई का उत्तरार्द्ध राजापुर की प्रति में नहीं है, किन्तु गुटका और सभा को प्रति में है। इससे जान पड़ता है कि वह श्रीली नकल करने से छूट गई। मायापति-सेवक माया । करइ त उलटि परइ सुरराया ॥ तब किछु कीन्ह राम-रुख जानी । अब कुचालि करि होइहि हानी ।। हे देवराज! माया-नाथ रामचन्द्रजी के सेवक भरतजी से माया करने पर वह उलटी करनेवाले पर पड़ेगी। तब जो कुछ किया उसमें रामचन्द्रजी का रुख समझ कर किया था, श्रव कुचाल करने से हानि होगी ॥२॥ सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ । निज अपराध रिसाहिँ न काऊ ॥ जो अपराध मगत कर करई। रोम-रोष-पावक सो जरई ॥३॥ हे सुरेश ! सुनो, रघुनाथजी का ऐसा स्वभाव है कि अपने अपराध से कभी अप्रसन नहीं होते। पर जो उनके भक्तों का अपराध करता है, वह रामचन्द्रजी के क्रोध रूपी अग्नि में जनता है ॥३॥ लोकहु बेद बिदित इतिहासा । यह महिमा जानहिं दुरबासा । भरत सरिस को राम-सनही। जग जप राम राम जप जेही ॥४॥ वेद और लोक में भी इतिहास प्रसिद्ध है, इस महिमा को दुर्वासा ऋषि जानते हैं। भरतजी के समान रामचन्द्रजी का प्रेमी कौन है ? सारा संसार रामचन्द्रजी को जपता है और रामचन्द्रजी भरतजी को जपते हैं ॥४॥ जगत रामचन्द्र को जपता है और रामचन्द्र भरत कोजपते हैं; यह 'मालादीपक अलंकार' है।राजा अम्बरीष ननन्य हरिभक्त थे। एकवार द्वादशी तीथि को प्रातकाल शिष्योसहित उनके यहाँ दुर्वासा मुनि आये । राजा ने मुनि को निमन्त्रित किया। दुर्वासा ने स्नानार्थ नदी तट पर जाकर द्वादशी का अन्त करना चाहा । इधर राजा अम्बरीष द्वादशी का अन्त होते देख गुरु की आशा से चरणामृत पान कर पारण किया और मुनि के आने पर वह धर्म सङ्कट निवेदन किया । इस पर मुनि कुपित हो कर राजा को भस्म करना चाहा। भगवान ने सुद्: .