पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६५

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रामचरित मानस । दिया है । ऐक को चन्द्रमा को पुष्ट करनेघाला समझ कर ससार यश देता है दूसरे को घटाने वाला जान कर अपयश प्रदान करता है। जड़ चेतन जग जीव जत, सकल राम-मय जानि । बन्दउँ. सब के पद-कमल, सदा जारि जुग पानि ॥ जगत् में जड़ चेतन जीव जितने हैं, सब को राम-रूप समझ कर मैं सदा दोनों हाथ जोड़ कर सभी के चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। देव दनुज नर नाग खग, प्रेत पितर गन्धर्व । बन्दउँ किलर रजनिचर, कृपा करहु अब सर्व ॥ ७ ॥ देवता, दैत्य, मनुष्यः सर्प, पक्षी, प्रेत, पितर, गन्धर्ष, किन्नर और राक्षललयको मैं प्रणाम करता हूँ, अब मुझ पर सब कोई कृषा करो चौ--आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल-थल-नम-वासी॥ सीय-राम-मय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी चौरासा लाखें योनियों में चार प्रकार ( स्वेदज्ञ, अण्डस, पिण्डज, जरायुज ) के जीव जल, धरती और आकाश में रहनेवाले सम्पूर्ण जगत् को सीताराम मय जान कर दोनों हाथ जोड़ कर मैं प्रणाम करता हूँ ॥६॥ सभा की प्रति में सियाराम-मय' पाठ है। चौरासी लक्ष योनियों की संख्या इस प्रकार है। ४ लाख मनुष्य, ६ लाख जलघर, १० लाख पक्षी, ११ लाख कृमि, २० लाख वृक्ष, ३० लाख पशु। जानि कृपाकर किङ्कर मोहू । सब मिलि करहु छाडि छल छोहू ॥ निजबुधिबल भरोस माहिनाहीं। ता तें बिनय करउँ सब पाहीं ॥२॥ कृपा कर मुझे अपना सेवक 'समझ छल छोड़ सब कोई मिल कर छोह कीजिए। अपनी बुद्धि के चल का मुझे भरोसा नहीं है, इसलिए सब से विनती करता हूँ॥२॥ करन चहउँ रघुपति-गुन-गाहा। लघु-मति-मारि चरित अवगाहा । सूझ न एकउ अङ्ग उपाऊ । मन-मति- मनोरथ राऊ॥ ३ ॥ मैं रघुनाथजी के गुणों की कथा वर्णन करना चाहता है, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी हैं और चरित अथाह (अपरम्पार) है ! उपाय का एक भी अह नहीं सूझता है, मन और बुद्धि दरिद्र है, पर मनोरथ राजा जैसा है ॥३॥ बुद्धि थोड़ी चरित अथाह होने से कोई उपाय नहीं सुमता, यह उपमेय वाक्य है । मन मति कङ्गाल-मनोरथ राजा, उपमान वाक्य है । जैसे दरिद को राज्य का मनोरथ असम्भव है, वैसे मुझ स्प-बुद्धि के लिए राम चरित वर्णन असम्भव है। इस प्रकार दोनों वाक्यों में निम्न प्रतिबिम्ब भाव इष्टान्त अलंकार है।