पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६५०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५८६ तैसेहि भरतहि सेन समेता । सानुज निदरि निपातउँ खेता ॥ जौं सहाय कर सङ्कर आई । तौ मारउँ रन राम दोहाई ॥४॥ उसी तरह सेनासहित और छोटे भाई शत्रुहन समेत भरत का तिरस्कार कर रणक्षेत्र में संहार कर डालूंगा। यदि शङ्करजी आकर सहायता करेंगे तो भी मैं रामचन्द्रजी की सौगन्ध करता हूँ कि रण में उन्हें माऊँगा दो०-अति सरोष माँखे लखन, लखि सुनि सपथ प्रवान । सभय लोक सब लोकपति, चाहत मारि भगान ॥ २३० ॥ लक्ष्मणजी को माँख से अत्यन्त कुद्ध देन और प्रमाणिक शपथ सुन कर लेोग भय. भीत हुए तथा सव लोकपाल डर कर अपने अपने लोकों से सागजाना चाहते हैं ॥२३०॥ भरतजी के समान शान्त, पूज्य पुरुष पर लक्ष्मणजी का अयथार्थ क्रोध प्रकाशित करना 'रौद्र रसाभास है। चौ-जगमयमगनगगनमइबानी। लखन बाहु-बल बिपुल बखानी ॥ तात प्रेतापप्रभाउ तुम्हारा । को कहि सकइ को जान निहारा ॥१॥ संसार भय में मग्न हो गया और लक्ष्मणजी के वाहु वल की भूरिभूरि प्रशंसा करते हुए आकाश-वाणी हुई । हे तात ! आप के प्रताप और महिमा को कौन कह सकता है तथा कौन जाननेवाला है ? ॥१॥ अनुचित उचित काज कछु होऊ । समुक्ति करियमल कह सब कोज ॥ सहसा करि पाछे पछिताही । कहहिँ बेद-बुध ते बुध नाहीं ॥२॥ 'अनुचित या उचित कुछ भी कार्य हो समझ कर करने से सब कोई अच्छा कहते हैं। जो जल्दबाज़ी करके पोछे पछताते हैं, वेद और पण्डित कहते हैं कि वे दूरदर्शी नहीं हैं ॥२॥ सुनि सुर-बचन लखन सकुचाने । राम-सीय सादर सनमाने । कही तात तुम्ह नीति सुहाई । सब त कठिन राज मद भाई ॥३॥ देवताओं के वचन सुन कर (अपनी भूल जान कर) लक्ष्मणजी लजा गये, रामचन्द्रजी और सीताजी ने आदर से सम्मान किया। रामचन्द्रजी बोले:-हे तात! आपने अच्छी नीति फही है, भाई! राजमद सबसे कठिन है ॥३n जो अँचवत मांतहिं नृप तेई । नाहिँ न साधु-समा जेहि सेई ॥ सुनहु लखन मल मरत सरीसा । बिधि प्रपञ्चमहँ सुना न दीसा ॥४॥ जो पी कर वही राजा मतवाले होते हैं जिन्होंने सज्जन-मण्डली की सेवा नहीं की है हे लक्ष्मण ! सुनो, भरत के समान उत्तम पुरुष हमने ब्रह्मा की सुष्ठि में न सुना और न देखा है ॥४॥ }