पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६६१

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६०० 1 रामचरित-मानस। सीताजी ने मन में आशीर्वाद दिया वे चोल न सकों, हेतुसूचक बात कह कर इसकी पुष्टि करना कि स्नेह में मग्न होनेके कारण उन्हें देहकी सुध नहीं थी 'कान्यलिङ्ग अलंकार' है। कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूछा। प्रेम भरा मन निज-गति छूछा तेहि अवसर केवट धीरज धरि । जोरि पानि बिनवत नाम करि न कोई कुछ कहता है, न कोई कुछ पूछता है, सब का मन प्रेम से भरा और अपनी गति (चञ्चलता) से खाली है। उस समय केवट धीरज धर प्रणाम करके हाथ जोड़ बिनती करने लगा॥४॥ दो०-नाथ साथ मुनिनाथ के, सातु सकल पुर लोग। सेवक सेनप सचिव सब, आये बिकल बियोग॥२४॥ हे नाथ ! मुनिराज (पशिष्ठजी) के साथ सम्पूर्ण माताएँ, नगर के लोग, सेवक, सेमा- पति और मन्त्री सव विरह से व्याकुल आये हैं ॥ २४१ ।। चौ०-सीलसिन्धु सुनि गुरु आगवनू । सिथ समीप राखे रिपुदवनू ॥ चले सोग राम तेहि काला । धीर धरम-धुर दीनदयाला ॥१॥ शील के समुद्र, धीरवान, धर्मधुरीण, दीनदयाल रामचन्द्रजी गुरु का आगमन मुन कर सीताजी के समीप में शत्रुइनजी को रख कर उसी समय शीघ्रता से चले ॥१॥ गुरुहि देखि सानुज अनुरागे । दंड-प्रनाम करन प्रनु लागे । मुनिबर धाइ लिये उर लाई । प्रेम उमगि भैंटे दोउ भाई ॥ २॥ गुरुजी को देख कर छोटे भाई लक्ष्मणजी के सहित प्रभु राजचन्द्रजी प्रेम से दण्डवतः प्रणाम करने लगे ? मुनिवर ने दौड़ कर छाती से लगा लिया और प्रेम में उमड़ कर दोनों भाइयों से मिले ॥२॥ प्रेम पुलकि केवट कहि नामू । कीन्ह दूरि ते दंड-प्रनाम् ॥ राम-सखा रिषि भरबस भैंटा । जनु महि लुटत सनेह समेटा ॥ ३ ॥ प्रेम से पुलकित होकर अपना नाम कह कर केवट ने दूर ही से दण्डवत प्रणाम किया। रामचन्द्रजी के मित्र (निषाद ) से ऋषिराज जोरावरी से मिले; ऐसा मालूम होता है मानों घरती पर लौटते हुए स्नेह को उन्हों ने बटोर कर उठा लिया हो ॥३॥ स्नेह कोई रत्नादि घश्य पदार्थ नहीं है जिसको लोटते में बटोर कर उन्हों ने उठाया है। यह केवल कवि की कल्पनामान 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। निषाद मुनिराज के साथ साथ सवेर पुर से आया है। स्नेह वश उसे यह भूल गया, इससे दंड-प्रणाम रघुपति-भगति सुमङ्गल-मूला । नभ सराहि सुर बरिषहिँ फूला ॥ एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं । बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं ॥४॥ रघुनाथजी की भक्ति सुन्दर मङ्गल को मूल है, इस तरह भाकाश में सराहना करके देवता 1 किया।