पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६६३

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. रामचरित मानस । ६०२ रामचन्द्रजी के तपस्वी रूप को देख कर.दुःह से सब माताएँ केकयी को दोष देने लगी। तव रामचन्द्रजी ने उन्हें समझाया कि दोष फिली फो न देना चाहिये 'लक्षणामूलक भगढ़ व्यङ्ग है। चौ०-गुरु तिय पद बन्द दुहुँमाई । सहित बिन लिय जे सँग आई। गङ्ग गौरि सम सब सनमानी । देहिँ असीस मुदित मृदु बानी ॥१॥ गुरुपती (अरुन्धती) के चरणों की और सम्पूर्ण ब्राह्मण की त्रियों के सहित ओ साथ में श्राई थी, दोनों भाइयों ने. वन्दना की। उन्हें गहा और पार्वतीजी के समान समझ कर सब के सत्कार किये, वे प्रसन्न होकर कोमल वाणी से अशावर्वाद देती हैं॥१॥ गहि पद लगे सुमित्रा अता । अनु अँटी सम्पत्ति अति रङ्का ।। पुनि जननी चरनन्हि दोउ भाता। परं प्रेम व्याकुल सब माता ॥२॥ सुमित्राजी के पाँव पकड़ कर प्रणाम किये। उन्हों ने छाती से लगा लिया, ऐसा मालूम होता है मानों महा दरिद्री को बहुत बड़ी सस्पदा मिली है।। फिर दोनों भाई प्रेम से सर्वात विह्वल होकर माता कौशल्याजी के चरणों पर पड़े ॥२॥ अति अनुराग अम्ब उर लाये। नयन सनेह सलिल अन्हवाये ॥ तेहि अवसर कर हरष बिषादू । किमि कवि कहइ भूक जिमि स्वादू ॥३॥ माता-कौशल्याजी ने अत्यन्त प्रेम से हदय में लगालिये और आँखों के स्नेह-जल से स्नान कराये। उस समय का हर्ष और विषाद कवि कैसे नहीं कह सकता, जैसे गंगो मनुष्य व्यञ्जनों के स्वाद को नहीं वर्णन कर सकता ॥३॥ हर्ष रामचन्द्रजी से मिलने का और विषाद तपस्वी रूप देख कर, दोनों भावों का एक साथ हृदय में उदय होना 'प्रथम समुच्चय अलंकार' है। मिलि जननिहि सानुज रघुराऊ । गुरु सन कहेउ कि धारिय पाऊ ।। पुरजन पाइ मुनीस नियोगू । जल थल तकि तकि उतरे लोगू II छोटे भाई लक्ष्मण के सहित रघुनाथजी माता से मिल कर गुरुजी से कहा कि, स्वामिन् ! आश्रम में पदार्पण कीजिये । मुनीश्वर की आज्ञा पा कर पुर के लोग जल का ठिकाना लख लख कर जहाँ तहाँ उतरे अर्थात् डेरा डाल दिया ॥४॥ दो-महिसुर मन्त्री मातु गुरु, गने लोग लिय साथ । पावन आस्लम गवन किय,भरत लखन रघुनाथ ॥ २४५ ॥ ब्राह्मण, मन्त्री, माताएँ, गुरुजी और कुछ गिने लोगों को साथ लिये भरतजी, लक्ष्मणजी और रघुनाथजी ने पवित्र आश्रम में गमन किया ॥२४॥