पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६६४

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. । द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । चौ०-सीय आइ मुनिबर पग लागी । उचित असीस लही मन माँगी। गुरु-पतिनिहि मुनि-तियन्ह समेता। मिली प्रेम कहि जाइ न जेता॥१॥ सीताजी श्राकर मुनीश्वर के चरणों में लगी और मन में मांगा हुश्रा उचित आशीर्वाद पाया। मुनियों की स्त्रिय के सहित गुरुपत्नी से मिलीं, उन्हें जितना श्रोनन्द हुआ वह कहा नहीं जा सकता ॥५॥ बन्दि बन्दि पग सिय सबही के। आखिरबधन लहे प्रिय जी के । सासु सकल जब सीय निहारी । मूंदे लयन सहमि लुकुमारी ॥२॥ सीताजी ने सभी के घरणा की वन्दमा कर करको मनको प्रिय लगनेवाला आशीर्वाद पाया । जव सुकुमारी सीताजी ने सम्पूर्ण सासुओं को देखा, तब सहम कर उन्हों ने आँखें बन्द कर ली ॥२॥ परी बधिक बस मन पराली । काह कीन्ह करतार कुचाली ॥ तिन्ह लिय निरखि निपट दुख पावा। से सबसहिय जो दैउ सहावा ॥३॥ उन्हें ऐसा मालूम हुना मानों राजहंसिनी व्याधा के वश में पड़ी हो, मन में पछताने लगों कि--विधाता ने यह कौन सी कुचाल की ? सासुओं ने सीताजी को देख कर बहुत अधिक दुख पाया, सोचती हैं कि-जो दैव सहाता है वह सब सहना ही पड़ता है ॥३॥ यदि सुख दुःख दैवाधीन न होता तो इस घोर वन में सीताजी काहे को कष्ट उठाती। यह व्यतार्थ वाच्यार्थ के बराबर होने से तुल्यप्रधान गुणीभूत घ्या है। जनक-सुता तब उर धरि धीरा । नील-नलिन-लायन भरि नीरा ॥ मिली सकल सासुन्ह सिय जाई । तेहि अवसर करुना महि छाई ॥४॥ तव जनकनन्दिनी ने हदप में धीर धर कर और नीले कमल के समान नेत्रों में जल भर फर सम्पूर्ण सासुओं से सीताजी जा कर मिला, उस समय धरती पर करपा छा गई ॥३॥ यहाँ आँखों की उपमा नीले कमल से देने में श्राशय यह है कि जानकीजी करुणारस प्रधान है । उसको रङ्ग कबूतर जैसा नीला-धुमैला साहित्य शास्त्र में कहा है। दो लागि लागि पग सबनि सिय, मैंदति अति अनुराग । हृदय असीसहिँ प्रेम-बस, रहिहहु भरी सोहाग ॥२६॥ सभी सासुओं के चरणों में लग लग कर सीताजी अत्यन्त प्रेम से मिलती हैं ! वे प्रेम से विहल हुई मन में आशीर्वाद देती हैं कि सौभाग्य से भरपूर रहोगी ॥ २४६॥ गद्गद होने के कारण सासुएँ बोल नहीं सकतीं इससे मन में आशीर्वाद देती हैं। हत्य में