पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६६७

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६०६ रामचरित-सानसे । चौ०-नाम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि मह बिकलजहाजू॥ सुमि गुरु गिरा सुमङ्गल-मूला । भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला ॥१॥ रामचन्टूजी के वचन सुन कर समाज भयमीत हुषा, ऐसा मालूम होता है मानों समुद्र में जहाज़ विकल (दूबना चाहता) हो। पर गुरुजी की सुन्दर महल को मूल वाणी सुन कर ऐसा जान पड़ता है मानों वायु अनुकूल छुना हो ॥१॥ पावन पय तिहुँ काल नहाही । जो बिलोकि अध-ओघ नसाहौँ । मङ्गल-मूरति लोचन मरि भरि । निरखहिं हरषि दंडवत करि करि ॥२॥ पवित्र जसा में तीनों काल नहाते हैं । जो देख कर पाप-समूह नष्ट हो जाते हैं । रामचन्द्रजी की मङ्गल-मूर्ति बाँस्त्र भर भर कर देखते हैं और दण्डवत कर करके प्रसन्न होते हैं ॥२॥ राम-ल-बान देखन जाहीं । जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं ॥ ॥ झरना झरहि सुधा सल बारी । त्रिविधि तापहर त्रिशिधि बयारी ॥३॥ रामचन्द्रजी के पर्वत और वन को देखने जाते हैं, जहाँ सम्पूर्ण सुख है और समस्त दुःख नहीं है । झरना अमृत के समान जल गिराते हैं, तीनों तापों को हरनेवाली तीनों प्रकार की बयारि चलती है ॥२॥ बिटप बेलि तृन अगनित जाती । फल प्रसून पल्लव बहु, भाँती सुन्दर सिला सुखद तरु छाहीं । जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं ॥४॥ अनगिनती जाति के वृक्ष, लता, तृण उनमें खास तरह के फल फूल और पत्ते हैं । सुन्दर चट्टान और सुखदायी वृक्षों की छाया है, वन की शोभा किल से वर्णन की जा सकती है? (किसी से नहीं) IN दो०-सरनि-सरोरुह जल बिहग, कूजत गुञ्जत भृङ्ग । बैर-बिगत बिहरत बिपिन, मृग बिहङ्क बहु रङ्ग ॥२४॥ वालापों में कमल फूले हैं, जल के पक्षी बोलते हैं और मैंवर गुजार करते हैं। बहुत तरह के मृग और पक्षी वैर त्याग कर पन में विहार करते हैं ॥२४क्षा चौ०-कोल किरात भिल्ल बन बासी। मधु सुचि सुन्दर स्वाद सुधासी॥ अरि भरि परन-पुटी रचि रूरी। कन्द मूल फल अडर-जूरी ॥१॥ वन के रहनेवाले कोल, किरात और भील पवित्र मधु सुन्दर अमृत के समान स्वादिष्ट पत्तों के सुहावने दोने बना कर उनमें भर भर कर और कन्द, मूल, फल तथा अँखुनों के गढे बाँध बाँध कर ॥२॥