पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६६८

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । सबहि देहि करि बिनय प्रनामा । कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा ॥ देहि लोग बहु माल न लेहीं । फेर राम दोहाई देहीं ॥२॥ सब के स्वाद, मेद, गुण और नाम कह कह कर प्रार्थना-पूर्वक प्रणाम करके देते हैं। लेाग बहुत सा मूल्य देते हैं, पर वे लेते नहीं, तब नगर निवासी चीजें लौटा देखे हैं, इस पर कोल भिल्लादि रामचन्द्रजी की दुशाई देते हैं ॥२॥ कहहिँ सनेह मगन मृदु बानी । मानत साधु प्रेम पहिचानी । तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा । पावा दरसन रामप्रसादा ॥३॥ वे स्नेह में मग्न होकर कोमल वाणी से कहते हैं कि सज्जन लोग प्रेम की चिन्हारी मानते हैं। आप सप पुण्यात्मा और हम नीच चाण्डाल हैं, रामचन्द्रजी की कृपा से हम लोगों को आप के दर्शन मिले हैं ॥३॥ हमाहिँ अगम अति दरस तुम्हारा । जस मरु-धरनि देवधुनि-धारा । रोम-कृपाल गरीब नवाजा। परिजन प्रजउ चहिय जस राजा ॥४॥ आप के दर्शन हम लोगों को अत्यन्त दुर्लभ हैं, जैसे मारवाड़ की धरती में गाजी की धारा । दयालु रामचन्द्रजी ने गरीबों पर कृपा को है, कुटुम्बी और प्रजा भी वैसे ही होने चाहिये जैसे राजा हैं ॥४॥ दो-यह जिय जानि सकोच तजि, करिय छोह लखि नेहु । हमहि कृतारथ करन लगि, फल-ठन-अङ्कुर लेहु ॥२५॥ यह जी में समझ कर सकोच दूर करके हमारे प्रेम को देख पया कीजिये । हमलोगों को कृतार्थ करने के लिये फल, तृण और अङ्कुरों को लीजिये ॥२५०॥ चौ०- प्रिय पाहुन बन पग धारे। सेवा जोग न माग हमारे ॥ देव काह हम तुम्हहिँ गोसाँई। ईधन पात किरात मिताई ॥१॥ आप प्यारे मेहमान वन में आये हैं, सेवा के योग्य हमारे भाग्य ही नहीं हैं। हे स्वामिन् हम आप को क्या देंगे? किरातों की मित्रता लकड़ा और पत्तों की है ॥१॥ यह हमारि अति बडि सेवकाई । लेहि न बासन बसन चौराई । हम जड़-जीव जीव-गन-घाती । कुटिल कुचोली कुमति कुजाती ॥२॥ हमारी यही चतुत यड़ी सेवकाई है कि आप के बर्तन और कपड़े न चुरा लेवें । हम सब जड़-जीव हैं, जावो की हत्या करनेवाले, कुटिल, कुचाली, कुबुद्धी और नीच जाति ॥२॥ पाप करत निसि-बासर जाहीँ । नहिँ पट कटि हिँ पेट अघाही ॥ सपनेहुँ धरम-बुद्धि कस काऊ । यह रघुनन्दन-दरस प्रभाऊ ॥३॥ पाप ही करते रात-दिन बीतते हैं, कमर में धन नहीं और न पेट भर भोजन पाते हैं । -