पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६६९

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६०० रामचरित मानस । हम लोगों को स्वप्न में भी कभी धर्म-बुद्धि कैसी ? यह रघुनाथजी के दर्शन का प्रभाव है (जो मनुष्य की तरह हम आप से बातें करते हैं)॥३॥ जब तें प्रभु-पद-पदुम निहारे । मिटे दुसह-दुख-दोष हमारे ॥ बचन सुनत पुरजन अनुरागे । तिन्ह के भाग सराहन लागे ॥४॥ प्रभु रामचन्द्रजी के चरण-कमलों को देखा है तब से हमारे कठिन दुःख और दोष मिट गये । भीलों के वचन सुन कर अयोध्या-निवासी अनुरक हुए और उन के भाग्य की बड़ाई करने लगे ॥४ हरिगीतिका-छन्द। लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीँ ।। बोलनि मिलनि सिय-राम-चरन सनेह लखि सुख पावहीँ। नर-नारि निदरहिँ-नेह निज सुनि, कोल-मिल्लनि की गिरा। तुलसी कृपा रघुबंस-मनि को, लोह लै लौका.तिरा ॥१०॥ सब उनके भाग्य की प्रशंसा करते हैं और प्रेम-भरे वचन सुमाते हैं। उनकी वोलचाल, मिलनसारी, सीताजी और रामचन्द्रजी के चरणों में स्नेह देख कर सुख पाते हैं। कोल भीलों की वाणी सुन कर स्त्री-पुरुष अपने स्नेह को तुच्छ मानते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि रघुवंशमणि की कृपा से लोहा लौकी को लेकर उतराया है ॥१०॥ नागरों का स्नेह नौका है. कोलभील आदि जाली मनुष्यों की प्रकृति लोह है, वे स्नेह जानते ही नहीं। उनके स्नेह को नगर निवासी बड़ा समझे और अपने को तुच्छ अनुमान करें, यही लौका को लेकर लोह का उतराना है। लौका का कार्य है जल पर उतराना और लोह का कार्य है हूल जाना। पर यहाँ लोह का कार्य लौकी में और लौकी का कार्य लोह में स्थापन करना 'द्वितीय असङ्गति अलंकार' है।न और ल अक्षरों की आवृत्ति में अनुप्रास है। सभा की प्रति में 'लोह लेइ नौका तिरा' पाठ है । जहाज लोह ही के बनते हैं और वे पानी पर उतराते हैं, तय नौका में लगे लोह यदि जल में तिरते हैं तो इस उपमा में कौन सी विशेषता है। फिर राजापुर की प्रति में 'लौका पाठ है, कविजी के पाठ को मिटा कर अपनी टाँग अड़ाना ठीक नहीं। सो०- विहरहिँ बन चहुँ ओर, प्रतिदिन प्रमुदित लोग सत्र । जल ज्याँ दादुर मार, भये पीन पावस प्रथम ॥२५१॥ सब लोग प्रतिदिन प्रसन्नता से चारों ओर वन में विहार करते हैं । वे ऐसे दृष्टपुष्ट दिखाई देते हैं, जैसे वर्षा के प्रथम जल से मेढक और मुरैला मोटे होते हैं ॥२५॥