पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ६११ एकउ जुगुति न मन ठहरानी। शोचत भरतहि रैनि बिहानी ।। मात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठये रिषय बोलाई ॥४॥ एक भी युक्ति मन मै न ठहरी, भरतजी को लोचते ही राव बीत गई । प्रात:काल स्नान करके प्रभु रामचन्द्रजी को प्रणाम कर आसन पर बैठते ही ऋषियों ने बुलवा भेजा ॥४॥ दो०--गुरु-पद-पदुम प्रनाल करि, बैठे आयतु पाइ । बिम-महाजन सचिव सब, जुरे सभासद आइ ॥२५॥ गुरुजी के चरण-कमलों को प्रणाम कर के आशा पाकर बैठ गये। ब्राह्मण, श्रेष्टलोग, मंत्री और सब समा के सभ्य आ कर एकटे हुए ॥ २५३ ॥ ची०-बोले भुनिभर समय समाना । सुनहु सभासद भरत सुजाना ॥ धरम धुरीन सानुकुल भानू । राजा राम स्वल भगवानू॥१॥ मुनिवर वशिष्ठजी समय के अनुसार वचन बोले कि हे चतुर भरत और सभासदो! सुनिये ! रामचन्द्रजी धर्म-धुरन्धर, सूर्यकुल के सूर्य, राजा, स्वतंत्र और भगवान हैं ॥१॥ अयोध्या न लौटने के लिए एफ धर्म-धुरन्धरता रूपी कारण पर्याप्त है । तिसपर सूर्य- कुल के प्रकाशक, राजा, स्वतंत्र और भगवान् अन्य प्रयल हेतुओं का वर्तमान रहना द्वितीय समुच्चय अलंकार' है। सभी विशेषणों में काकु से विपरीत ध्वनि है। धर्म-धुरन्धर को धर्म त्यागने के लिये कहना उचित नहीं । सूर्यकुल के सूर्य हैं अर्थात् जिस कुल के राजा, सत्यवादी जगत प्रकाशक होते आये हैं, उनको केवल अयोध्या में प्रकाश करने के लिये विवश करना अन्यत्र नहीं, ऐसा कहना अनर्थ है। राजा की आशा सब पर किन्तु राजा किसी की आशा के अधीन नहीं । स्वतन्त्र जो किसी के वश में नहीं । भगवान् षडैश्वर्या से परिपूर्ण हैं उन पर कौन शासन कर सकता है। सत्यसन्ध पालक-तिखेतू । राम-जनम जग मङ्गल हेतू ॥ गुरु पितु मातु बचन अनुसारी। खल दल-दलन देव हितकारी ॥२॥ 'सत्यसकल्प, वेद की मर्यादा के रक्षक हैं। रामचन्द्रजी का जन्म जगत के महल के लिये है। गुरु, पिता और माता के वचनानुसार चलनेवाले, दुष्ट-समूह के नाशक और देवताओं के हितकारी हैं ॥२॥ सत्यव्रती को सत्य त्यागने के लिये कैसे कहा जाय? वेद की मर्यादा रहे,वही कहना ठीक होगा। रामचन्द्रजी जगत के कल्याणार्थ शरीर धरे हैं, केवल अयोध्या के लिये नहीं। फिर पिता-माता की आशा मान कर वन में आये हैं। खलों के विनाश और देवताओं के कल्याण का सङ्कल्प फर चुके हैं। इन सब प्रबल कारणों का एक ही तात्पर्य निकलता है कि फिर रामचन्द्र को लौटने के लिये कैसे कहा जाय ?