पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६८६

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, द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड दो-सानुज पठइय माहि बन, कीजिय सबहि सनाथ। नतरु फेरियहि बन्धु दोउ, नाथ चलउँ मैं साथ ॥२८॥ हे नाथ ! छोटे भाई शत्रुहन के सहित मुझे वन में भेज कर सब को सनाथ कीजिये । नहीं तो लक्षमण और शत्रुहन दोनों भाइयों को लौटा दीजिये, मैं आप के साथ चलूँ ॥२६॥ चौ०-नतरु जोहि बन तीनिउँ भाई । बहुरिय सोय खहित रघुराई । जेहि विधि प्रभु प्रसन्न मन होई । करुलासागर कीजिय लाई ॥१॥ नहीं हम तीनों भाई वन को जाँस और सीताजी के सहित श्राप अयोध्या को लौट जाइये । हे दद्यासिन्धु जिस तरह स्वामी का मन प्रसन्न हो, वही कीजिये ॥१॥ भरतजी का बारबार अपनी प्रथम कही बात का निषेध कर दूसरी बात कहना, 'उक्ताक्षेप अलंकार' है। देव दीन्ह सब लोहि असार । मोरे नोति न धरम बिचारू ॥ कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू । रहत न आरत के चित चेतू ।।२।। हे देव ! आपने सव कुवोझ (जो तुम कहो वही काँगा) मुझे दिया है। किन्तु मुझ में न नीति है और न धर्म का विचार है । सारी बातें अपने मतलब की कहता हूँ, दुःखी मनुष्यों के चित्त में चेत (ज्ञान) नहीं रहता ॥ २ ॥ सभा को प्रति में 'देव दीन्ह सच मोहि सिर भाल' पाठ है, किन्तु राजापुर की प्रति और गुटका में 'मोहि भारू है। उत्तर देइ सुनि स्वामि रजाई । सो सेवक लखि लाज लजाई । अस मैं अवगुन-उदधि-अगाधू। स्वामि-सनेह सराहत साधू ॥३॥ जो स्वामी की नाशा को सुन कर उत्तर देता है, उस सेवक को देख कर लाज भी लजा जाती है। ऐसा मैं अवगुणों का अगाध समुन्द्र हूँ, फिर भी स्वामी मेरे स्नेह को साधु (सत्य) कह कर सराहते हैं ॥३॥ उत्तर देनेवाले सेवक को देख लाज भी लजाती है, निर्लज्जता की प्रत्युजि है। ऐसे श्रेषगुणों का मैं अथाह सागर हूँ, तो भी स्वामी मेरे स्नेह को लञ्चा कह कर बड़ाई करते हैं। इस कथन से स्वामी की अपार कृपण अपने ऊपर व्यक्षित करना च्याङ्ग है। अब कृपाल माहि सो सत भावा । सकुक्ष स्वामि जन जाइ न पावा ॥ प्रभु-पद-सपथ कहउँ सतिमोजे । जग-मङ्गल-हित एक उपाऊ ॥४॥ हे कृपालु ! अब मुझे वही मत सुहाता है कि जिसमें स्वामी के मन में जा कर सकोच न प्राप्त हो । प्रभु के चरणों की सौगन्द करके सत्य कहता हूँ कि जगत के महल के लिए एक ही उपाय है ॥ ७8