पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६८८

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ६२७ चौ०-कोसलपति गति सुनि जनकारा । मे सब लोग सोक-बस बारा । जेहि देखे तेहि समय विदेहू । नाम सत्य अस लांग न केहू ॥१॥ कोशलनाथ-दशरथजी को मृत्यु सुन फर जैनकजी और सभा के लोग शोक वश पावले हो गये। उस समय जिसने विदेह राजा को देखा, किसी को यह (विदेह) नाम सत्य नहीं मालूम हुभा ॥१॥ देही को दुःख होता है विदेही को नहीं, यह व्यङ्गार्थ वाच्यार्थ के साथ ही प्रकट हो रहा है। गुरुजी के कहे ज्या पूर्ण 'विदेह' शब्द का उत्तर दूतों ने कैसी मनोहर युक्ति के साथ दिया है। रानि कुचालि सुनत नरपालहि । सूफ न कछु जस मनि बिनु व्यालहि ॥ भरत-राज रघुबर-जनबाखू । मा मिथिलेसहि हृदय हरासू ॥२॥ रानी केकयी की कुचाल सुनते ही राजा को कुछ न सूझा पड़ा, वे ऐसे व्याकुल हुए जैले मणि विना सौंप घबरा जाता है । भरतजी को राज्य और रघुनाथजी को बनबास सुन कर मिथिलेश्वर के पदय में दुःख हुभा ॥२॥ नृप बूझे बुध-सचिव-समाजू । कहहु बिचारि उचित का आजू ॥ समुझि अवध असमञ्जस दोज । चलिय कि रहिय न कह कछु कोजा३॥ राजा ने विद्वान और मन्त्रिमण्डल से पूछा कि विचार कर कहो आज क्या करना उचित है। अयोध्या के दोनों राडसों को समझ कर चलिये या किन चलिये; कोई कुछ नहीं कह सके ॥३॥ पहि धीर धरि हृदय बिचारी । पठये अवध चतुर चर चारी ॥ बूझि भरत सतिबाउ कुभाऊ । आयेहु बेगि न होइ लखाऊ ॥४॥ राजा ही ने धीरज धर हृदय में विचार कर चार चतुर दूतों को अयोध्या की ओर भेजा और कहा कि भरत सद्भाव या दुष्टभाव समझ कर जल्दी लौट आना और किसी को लखाव न हो अर्थात् अपना परिचय किसी पर प्रकट न होने देना ॥७॥ दो गये अवध चर भरत-शति, बूझि देखि करतूति । चले चित्रकूटहि भरत, चार चले तिरहूति ॥२७॥ वे दूत श्रायोध्या में गये, भरतजीकी दशा समझ फर और उनकी करनी देखी जब भरतजी चित्रकूट को चले हैं। तब वे धावन जनकपुर की ओर प्रस्थान किये ॥२७॥ चौ० -दूतन्ह आइ भरत कइ करनी । जनक-समाज जथामति बरनी । सुनि गुरु परिजन सचिव महीपति । भे सब सोच-सनेह बिकल अति ॥१॥ दूतों ने श्राकर भरतजी की करनी राजा जनक की सभा अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन की । सुनकर गुरु शतानन्दजी, कुटुम्वीजन, मन्त्री और राजा सब सोच तथा स्नेह से अत्यन्त व्याकुल एप ॥२॥