पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६८९

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1 ६२ रामचरित मानस । धरि धीरज करि भरत बड़ाई। लिये सुमट साहनी बोलाई । घर-पुर-देस राखि रखवारे । हय गय रथ बहु जान सँवारे ॥२॥ धीरज धरकर राजाने भरतजी की बड़ाई की और शूरवीर सेनापतियों को बुलवाया। राजमाइल, नगर और देश में रक्षकों को रख कर हाथी, घोड़े, रथ और बहुत तरह की सवा- रियाँ सजवा ॥२॥ दुधरी साधि चले ततकाला । किय बिनाम न मग महिपाला ॥ भारहिँ आजु नहाइ प्रथागा । चले जमुन उतरन सब लागा ॥३॥ दुधरिया साइत सोध कर तत्काल चल दिये, राजाने मार्ग में कहीं विश्राम नहीं किया। अाज खबरे प्रयाग-रलान कर चले, जब सब यमुनाजी उत्तरने लगे ॥३॥ खबर लेन हम पठये नाथा । तिन्ह कहि अस महि नायउ माया । साथ किरात छ सातक दीन्हे । मुनिवर तुरत बिदा चर कीन्हे ॥४॥ हे नाथ! तब हम लोगों को खबर लेने के लिये भेजा है, उन्हों ने ऐसा कह कर धरती में मस्तक नवाया । मुनिवर बशिष्ठजी ने छ सात किरातों को साथ देकर दूतों को तुरन्त विदा किया ॥४॥ दो-सुनत जनक आगवन सब, हरषेउ अवध-समाज । रघुनन्दनहिँ सोच बड़, सोच बिबस सुर-राज ॥२२॥ जनकजी का आगमन सुनते ही सब अयोध्या का समाज प्रसन्न हुभा । रघुनाथजी को बड़ा सङ्कोच पुश्रा और देवराज-इन्द्र अत्यन्त सोच के वश हो गये ॥२७॥ एक जनकजी के आगमन से अयोध्यावासियों का प्रसन्न होना, रघनाथजी का सक्कोच में पड़ना और इन्द्र को सोच विरोधी कार्य होना 'प्रथम व्याघात अलंकार' है । चौमारहगलानि कुटिल कैकेई । काहि कहइ केहि दूषन देई । अस मन आनि मुदित नर-नारी । भयउ बहोरि रहब दिन चारी ॥१॥ कुटिल केकयी मनस्ताप से गली जाती है, किससे कहे और किसको दोष दे। स्त्री-पुरुष ऐसा सोच कर मन में प्रसन्न है कि फिर चार दिन रहना हुआ ॥२॥ अयोध्यावासी रहना चाहते हा थे, अकस्मात जनकजी के आगमन से वह काम सुगम हो गया 'समाधि अलंकार' है। एहि प्रकार गत बासर सोऊ ! प्रात नहान लाग सब कोऊ ॥ करि मज्जन पूजहिँ नर-नारी । गनप गारि तिपुरारि तमारी ॥२॥ इस तरह वह दिन भी बीत गया, सवेरे सब कोई स्नान करने लगे। स्नान करके स्त्री-पुरुष गणेशजी, शिवजी, पार्वतीजी और सूर्य की पूजा करते हैं ।।२।। सभा-की प्रति में 'गनपति गौरि पुरारि तमारी' पाठ है। ।