पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६९८

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । कासल्या कह दीस न काहू । करम-बिबस दुख-सुख छति लाहू ॥ कठिन करम-गति जान विधाता । जो सुभ असुभ सकल फल दाता ॥२॥ कैशल्याजी ने कहा-किसी का दोष नहीं, दुःख, सुख, हानि और लाभ कर्म के अधीन है। कठिन कम की गति को विधाता जानते हैं, जो उसके अनुसार जीव को सम्पूर्ण शुभ और अशुभ फल देते हैं, इसमें ब्रह्माका कौन सा दोष है ॥२॥ ईस रजाइ सीस सत्रही के । उतपति थिति लय बिषहु अमी के ॥ देबि मोह-अस सोचिय मादी । विधि प्रपञ्च अस अचल अनादी ॥३॥ ईश्वर की भाशा सभी के लिर पर है, पया उत्पत्ति, क्या पालन, पया प्रलय, विष के भी और अमृत के भी (सब पर उली का प्राधान्य है)। हे देवि ! मोह के अधीन होकर व्यर्थ सोब करती हो, ब्रह्मा का अटल प्रपञ्च अनादि काल से ऐसा ही होता आता है ॥३॥ ब्रह्मा ईश्वराशा के अधीन निर्दोष हैं, यह व्यङ्गार्य वाच्यार्थ के बराबर गुणीभूत ज्या है। भूपति जियब मरद उर आनी । सोचिय सखि लखि निजहित हानी । सीयमातु कह सत्य सुबानी। सुकृती-अवधि अवधपति-रानी ॥४॥ हे सखी ! राजा का जीना मरना हृदय में विचार कर सोच अपने हितों की हानि देख कर करना है । सीताजा की माता ने सुन्दर वाणी में कहा लत्य है, आप पुण्यात्माओं के हर अयोध्यानरेश की रानी हैं (फिर ऐसा क्यों न कहे) Pen दो०-लखन-राम-खिय जाहु बन, मल परिनाम न पाच्च । गहबरि हिय कह कासिला, मोहि भरत कर सोच ॥२२॥ लक्ष्मण, रामचन्द्र और सीता वन को जोय, इसका फल अच्छा होगा बुरा नहीं । दुःखित हृदय से कौशल्पाजी कहती हैं कि मुझे भरत की चिन्ता है ॥२२॥ चौ०-ईस प्रसाद असीस तुम्हारी । सुत सुतबधू देवसरि-बारी । राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ । सो करि कहउँ सखी सतिभाऊ ॥१॥ ईश्वर की कृपो और श्राप के आशीर्वाद से मेरे पुत्र-पतोहू गंगाजल (फे समान पवित्र) हैं। रामचन्द्र की सौगन्द मैं ने कभी नहीं की, हे सखी! वह करके सत्य कहती हूँ ॥१॥ भरत सील गुन बिनय बड़ाई । भायप-भगति भरोस भलाई। कहत सारदहु कर मति हीचे । सागर सीपि कि जाहिँ उलीचे ॥२॥ भरत का शोल, गुण, नम्रता, महिमा, भाईचारा, भक्ति, विश्वास और भलापन कहते सरस्वती की भी बुद्धि खिच जाती है, क्या सुतुही से समुद्र का जल उलीचा जा सकता है? (कदापि नहीं)॥२॥