पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६९९

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रामचरित मानस । जानउँ सदा भरत कुल-दीपा । बार बार माहि कहेउ महीपा। कसे कनक मनि पारिख पाये । पुरुष परिखियहि समय सुभाये ॥३॥ मैं भरत को सदा से कुल का दीपक समझती हूँ, चार बार राजा ने मुझसे कहा था। सोना कसने से और मणि परखने से खरे खोटे की पहचान होती है, पुरुष की स्वाभाविक परीक्षा समय पर होती है ( अवसर पड़ने पर भरत ने अपने अनुपम गुणों का परिचय दिया )॥३॥ अनुचित आजु कहब अस मारा। लोक सनेह सयानप थोरा ॥ सुनि सुरसरि सम पावनि बानी । भई सनेह बिकल सब रानी ॥४॥ श्राज मेरा ऐसा कहना अनुचित है, क्योंकि शोक और स्नेह से सयानपन घट गया है। गङ्गाजी के समान पवित्र वाणी सुन कर सब रानियाँ नेह से व्याकुल हो गई ॥॥ वाणी-उपमेय, गङ्गाजी-उपमान, सम-वाचक और पवित्रता-धम 'पूर्णापमा अलंकार' है। दो-कौसल्या कह धीर धरि, सुनहु देषि मिथिलेसि । को बिबेक-निधि-बल्लमहि, तुम्हहिं सकइ उपदेसि ॥२३॥ कौशल्याजी ने धीरज धर कर कहा-हे देवि मिथिलेश्वरी सुनिये, आप शान के निधान (जनकजी) की प्रियतमा हैं, आप को कौन सिखा सकता है ? ( कोई नहीं)॥२३॥ चौ०-शनि राय सन सवसर पाई। अपनी माँति कहब समुझाई ॥ रखियहि लखन भरत गवनाहि बन । जौँ यह मतमानइ महीप मन ॥१॥ है रानी ! समय पा कर राजा को अपनी ओर ले समझा कर कहना कि लक्ष्मण को रस लें और भरत वन जाँय, यदि यह मत उनके मन में जंचे तो अच्छा है ॥२॥ तौ अल जतन करब सुबिचारी । मारे सोच भरत कर भारी॥ गूढ सनेह भरत मन माहीं । रहे नीक मोहि लागत नाही ॥२॥ तब वे अच्छी तरह विचार कर प्रयत्न करेंगे, मुझे भरत ही का बड़ा सोच है। भरत के मन में (रामचन्द्र के चरणों में ) गूढ़ प्रेम है, उनका घर रहना मुझे अच्छानहीं लगता है ॥२॥ कहीं भरत की भी राजा की दशा न हो, वह वाच्यसिद्धाङ्ग गुणीभूत व्यङ्ग है। लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी । सब भई मगन करुनरस सानी ॥ नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेह सिद्ध जोगी मुनि ॥३॥ कौशल्याजी का स्वभाव लखकर और उनकी सीधी सुन्दर वाणी सुनकर सब करुणारस से सनी मग्न हो गई । आकाश से फूल बरसा कर देवता धन्य धन्य का शब्द करते हैं और सिब, योगी मुनि स्नेह से शिथिल हो गये ॥३॥