पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७१

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२०.. रामचरित मानस । चौ०-जे जनमे कलिकाल कराला । करतब बायस वेष मराला ॥ चलत कुपन्य बेद-भग छाँड़े। कपट-कलेवर 'कलिमल-भाँड़े ॥१॥ इस भीषण कलिकाल में जो जन्मे हैं, जिनका करतय कौए को और वेश हंस का है, वेद-मार्ग को छोड़ कर कुमाग में चलते हैं, कपट के शरीर और पाप के भाजन है॥१॥ बञ्चक भगत कहाइ राम के । किङ्कर कञ्चन कोह-काम के । तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मारी । धिक धरमध्वज धन्धक धोरी ॥२॥ जो रामचन्द्रजी के भक कहा कर लोगों को उगते हैं, वास्तव में सुवर्ण, क्रोध और. काम के सेवक हैं। उनमें पहले संसार में मेरी गिनती है, धर्म की पताका उड़ा कर काम धन्धे का बोझ लादे रहनेवाले मुझ सरीने वैल को धिक्कार है ॥२॥ यहाँ गोस्वामी जी का अपने को धिक्कारना 'लघुता,ललित सुवारि नचोरी' के अनुसार उच्च श्रेणी में लानेवाला 'विचित्र अलंकार' है। सभा को प्रति में धुंधरक धोरी' पाठ है ! धन्धक और धुंधरक पर्यायी शब्द हैं, अर्थ दोनों का एक ही है। जौं अपने अवगुन सब कहऊँ । बाढ़इ कथा पार नहिँ लहऊँ ॥ ते मैं अति अलप बखाने । थोरे महँ जानिहहिँ सयाने ॥३॥ यदि मैं अपना सब दोष कहने लगें तो कथा बढ़ जायगी, पार न पाऊँगा। इसलिए मैंने बहुत कम वर्णन किया है, चतुर लेग थोड़े ही में समझ लेगे ॥३॥ समुझि बिबिध बिधि बिनती मारी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी ॥ एतेहु पर करिहहिं जे सका । भोहि ते अधिक ते जड़ मति-रक्षा ॥४॥ मेरी अनेक प्रकार की विनती को समझ कर और कथा सुन कर कोई दोष न देगा। इतने पर भी जो शङ्का करेंगे, वे मुझ से भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के दरिद्री हैं nel गुटका में 'समुझि विविध विनती अब मोरीपाठ है और शङ्का के स्थान में 'अशङ्का पाठ है, जिससे छन्दोभन दोष आ जाता है।' कबि न हाउँ नहिं चतुर कहावउँ । मति अनुरूप राम-गुन गावउँ ॥ कह रघुपति के चरित अपारा । कहँ मति मारि निरत संसारा ॥५॥ मैं न कवि है और न चतुर कहलाना चाहता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार रामचन्द्रजी का गुणगान करता हूँ । कहाँ रघुनाथजी का अपार चरित्र और कहाँ संसार में लगी हुई मेरी बुद्धि ! ॥५॥ जेहि मारुत गिरि मेरु उड़ाही । कहहु तूल केहि लेखे माहीं ॥ समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथों मन अति कदराई ॥६॥ जिस (प्रचण्ड) वायु में सुमेरु पर्वत उड़ जाता है, भला कहिए तो सही ! उसके लिए गई किस गिनती में है। रामचन्द्रजी की अपार महिमा समझ कर कथा निर्माण करने में मन बहुत कचिया रहा है ॥६॥ 5