पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७२५

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पाकर ॥१॥ कठोर कुबस्तु ६६४ समचारिस-मानस । शत्रुहन दोनों भाई नित्य कर्म पूरा करके रामचन्द्र जी, अत्रिमुनि और वशिष्ठजी को माता सहित समाज साज सब सादे । चले राम-बन अटन पयादे॥ कोमल चरन चलत बिनु पनहीं । भइ मृदु भूमि सकुचि मनमनहीं॥२॥ सब समाज के सहित साद साज (पोशाक) से पैदल रामचन्द्रजी के वन में धूमने चले। कोमल चरणों से विना पनहीं के चलते हैं, धरती मन ही मन लजा कर नरम हो गई ॥२॥ भरतजी कोमल चरणों से विना जूतियों के पैदल राम-धन में घूमना चाहते ही थे कि अकस्मात् पृथ्वी के मुलायम होने की सहायता से यह काम (मार्गगमन) और भी सुगम हो गया । 'समाधि अलंकार' है। कुस कंटक काँकरी कुराई । कटुक दुराई॥ महि मज्जुल मृदु मारग कीन्हे । बहुत समीर त्रिविधि सुख लीन्हे ॥३॥ कुशा, फाँटा, फछड़ी, कुराह, कड़वी, कठोर और कुवस्तुओं को छिपा कर पृथ्वी ने सुन्दर मुलायम रास्ता कर दिया, तीनों प्रकार की सुखदाई चयारि बहती है || सुमन घरषि सुर घन करि छाहीं । बिटप फूलि फलि तुन मृदुताहीं । भूग बिलोकि नग बोलि सुभानी । सेत्रहि सकल राम-प्रिंय जानी ॥१॥ देवता फूल परसा कर, बादल छाँह करके, वृक्ष फूल फल कर, घास कोमल होकर, मृग देख कर और पक्षी सुन्दर बोली बोल फर सप रामचन्द्रजी के प्यारे जान भरतजी की सेवा करते हैं ॥४॥ दो०-जुलस सिद्धि सब प्राकृतहु, राम कहत जमुहात । राम मान-प्रिय भरत कहँ, यह न होइ बड़ि बातं ॥३११।। सामान्य मनुष्य जमुहाते हुए जो राम कहते हैं, सारी सिद्धियाँ उन्हें सुलभ हो जाती हैं। फिर रामचन्द्रजी के प्राणप्यारे भरतजी के लिये यह बड़ी बात नहीं है ॥ ३११ ॥ जब प्राकृत मनुश्यों को जम्हाई लेते लमय 'राम' कहने से ये सिद्धियाँ सुलभ हो जाती हैं। फिर तब रामचन्द्रजी के प्राण-प्रिय भाई के लिये यह कोई बड़ी बात नहीं 'कामार्थापत्ति अलंकार है। चौ० एहि विधि भरतफिरत बन माहीं। नेम प्रेम लखि मुनि सकुचाहीं॥ पुन्य जलासय भूमि बिनागा । खगमृगतरुनगिरि बनबागा॥१॥ इस तरह भरतजी वन में फिरते हैं, उनका नेम प्रेम देख कर मुनि सकुचा 'जाते हैं। पवित्र जलाशय, भूखण्ड, पक्षी, मृग वृत, घास, पर्वत, वन और बाग॥१॥ चारु विचित्र पवित्र बिसेखी । बूझत भरत दिव्य सब देखी ॥ सुनि मन मुदित कहत रिषिराज । हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ ॥२॥ सब सुन्दर विलक्षण पवित्र और अत्यन्त दिव्य देख कर भरतजी पूछते हैं । सुन कर ऋषिराज अनिजी प्रसन्न थन से उनके मादि कारण, नाम, गुण, पुण्य और प्रभाव कहते हैं ॥२॥