पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७२९

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रामचरित मानस । चौ-राज-धरम-सरबस एतनाई । जिमि मन माँह मनोरथ गाई । बन्धु प्रबोध कीन्ह बहु भाँती। बिनु अचार मन तोषन साँती ॥१॥ राज्यधर्म का निचोड़ इतना ही है, जैसे मन में मनोरथ छिपा रहता है । बहुत तरह से भाई को समझाया, परन्तु बिना आधार के उनके मन में सन्तोप और शान्ति नहीं होती है. ॥१॥ भरत सील गुरु सचिव समाजू । सकुच सनेह बिबस रघुराजू । प्रभु फरि कृपा पाँवरी दीन्ही । सादर भरत सोस धरि लीन्ही ॥२॥ इधर भरतजी का शोल, उधर मन्त्री और गुरु खमाज के संकोच से (कि पाँवरा कैसे प्रदान क) रघुनाथजी स्नेह के वशीभूत हो गये । प्रभु रामचन्द्रजी ने कृपा करके बड़ा दिये, भरतजी ने उन्हें बाद से सिर पर रख लिया ॥ २ ॥ चरनपीठ करूनानिधान के । जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के । सम्पुट भरत सनेह-रतन के । आखर जुग जनु जीव जतन के ॥३॥ करुणानिधान के खड़ाऊँ ऐसे मालूम होते हैं मानो प्रजो के प्राणों के रक्षक दो पहरेदार हो । भरतजी के स्नेह रूपी रत्न के लिए डच्चे रूप हैं, जीप की रक्षा के लिए ऐसे जान पड़ते है मानों दोनों अक्षर ( रा-म) हो॥३॥ कुल-कपाट कर कुसल करम के । विमल नयन सेवा सुधरम के। भरत मुदित अवलम्ब लहे से । अस सुम्ब जस सिय-राम रहे ते ॥४॥ कुल की रक्षा के लिए किवाड़ रूप और कर्मों के हेतु कुशल हाथ रूप हैं, सेवा रूपी सुन्दर धर्म के दर्शनेवाले नेत्र रूप हैं । आधार मिलने से भरतजी प्रसन्न हैं, उनको ऐसा सुब हुआ जैसा सीताजी और रामचन्द्रजी के घर रहने से होता ॥ ४॥ खड़ाऊँ मिलने से वह सुख हुआ जो सीताराम के घर रहने से होता 'द्वितीय विशेष अलंकार' है। दो-माँगेउ बिदा प्रनाम करि, राम लिये उर लाइ। लोग उचाटे अमरपति, कुटिल कुअवसर पाइ ॥३१६॥ भरतजी ने प्रणाम करके विदा माँगी, रामचन्द्रजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया ! कुटिस इन्द्र ने कुसमय पा कर लोगों पर उच्चाटेन किया ॥ ३१६ ॥ चौसो कुचालि सषकहँ भइनीकी । अवधि आस सम जीवन जी की। न तरु लखन-सिय-राम बियोगा। हहरि मरतसब लोग कुरोगा ॥१॥ वह कुचाल सब के लिए अच्छी हुई, अवधि पर्यन्त जीव को जीने की आशा के समान हो गई । नहीं तो लक्ष्मणजी, सीताजी और रामचन्द्रजी के वियोग रूपी 'कुरोग से डर कर सब लोग मर जाते ॥१॥