पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७३३

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। रामचरितमानस दोष-गुरु गुरु-तिय-पद बन्दि प्रभु, सीता लखन समेत । फिर हरप बिसमय सहित, आये परन-निकेत ॥३२०॥ शुरुजी और गुरु-पत्नी के चरणों की चन्दना करके सीताजी और लक्ष्मणजी के सहित प्रभु रामचन्द्रजी हर्ष और विस्पय के साथ पर्णशाला में लौट भाये ॥३२०] हर्ष विस्मय दोनों भावों का एक साथ हव्य में उत्पन्न होना 'प्रथम समुचय अलंकार' है। जो०-बिदो कीन्ह सनमालि निषादू । चलेउ हृदय बड़ धिरह बिषादू ॥ कोल किरात लिल्ल बनचारी । फेरे फिरे जोहारि जोहारी ॥१॥ सम्मान करके निषाद को विदा किया, वह धियोश ले हदय में बड़ा दुःखी हो कर चला। बोल, किरात और भील आदि वनचारियों को लौटाया, (जो दूर दूर के जङ्गलों से सेवा के लिये आये थे) वे वारपार प्रणाम करके लौट गये ॥१॥ प्रसिय लखन बैठि बट छाहीं। प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं। भरत सनेह सुभाउ सुबानी। प्रिया अनुज सन कहत बखानी ॥२॥ प्रभु रामचन्द्रजी, जीताजी और लक्ष्मण जी बड़ की छाँह में बैठ कर प्यारे कुटुम्पियों के वियोग से दुखी हो रहे हैं भरतजी के स्नेह और स्वभाव को प्रिया तथा अनुज से सुन्दर वाणी में पखान कर कहते हैं । ॥ श्रीति प्रतीति वचन मल करनी। नोमुख राम प्रेम-बस बरनी। तेहि अक्सर खग मृग जल-लीला। चित्रकूट चर अचर मलीनी ॥३॥ मन, वचन और कर्म से सरतजी की प्रीति और विश्वास की घड़ाई रामचन्द्रजी ने प्रेमवश श्रीमुख से वर्णन की । उस समय चित्रकूट के पती, सुग और जल को मछलियाँ, जड़, चेतन सब उदास हो गये ॥ ३ ॥ पशु, पक्षी, जड़ में मलिनता वर्णन करुण रसाभास है। विधुध बिलोकि दसा रघुबर की । बरषि सुमन कहि गति घर घर को। प्रनु भनाल करि दीन्ह भरोसा । चले मुदित मन डर न खरोसा ॥४॥ देवता-वृन्द रघुनाथजी की दशा देख कर फूल बरसा कर घर घर का हाल कहते हैं। प्रभु रामचन्द्रजी ने प्रणाम करके भरोसा दिया, वे प्रसस होकर चले; उनके मन में तिनके के क्षरावर डर नहीं रह गया ॥४॥ दो-तानुज सीय समेत प्रभु, राजत परन-कुटीर । भगति ज्ञान बैराग्य जनु, सोहत धरे सरीर ॥३२१॥ स्रोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के सहित प्रभु रामचन्द्रजी पक्ष की कुटी में विराजते हैं। ऐसा मालूम होता है भान भक्ति, मान और वैराग्य शरीर धारण किये i । सोहते हों ।। ३२१ ॥