पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७३५

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रामचरित मानस । ६७४ बोलि भरत कर जोरे। करि प्रनाम बर बिनय निहारे । ऊँच नीच कारज भल पोचू । आयसु देव न करब सँकोचू ॥२॥ नाक्षणों को बुला कर प्रणाम करके हाथ जोड़ भरतजी ने सुन्दर नम्रता से निहोरा किया कि ऊँच, नीच, भला, बुरा कार्य जो श्री पड़े उसके लिए आशा दीजियेगा, सङ्कोच न कीजियेगा ॥२॥ परिजन पुरजन प्रजा बोलाये । समाधान करि सुबस बसाये। सानुज गे. गुरु-गेह बहारी । करि दंडवत कहत कर जोरी ॥३॥ 'कुटुम्बोजन, पुरबासी और प्रजाओं को बुलवाया, उन्हें बारस. देकर अच्छे प्रकार रहने का प्रबन्ध कर दिया। छोटे भाई शत्रुहनजो के सहित फिर गुरुजी के मन्दिर में गये, दण्डवत करके हाथ जोड़ कर बोले ॥१॥ आयसु होइ त रहउँ सनेमा । बाले मुनि तन पुलकि सप्रेमा । सखुकच कहब करब तुम्ह जोई। धरम-सार जग होइहि साई ॥४॥ आशा हो तो मैं नियम के सहित रहूँ, शरीर से पुलकित होकर वशिष्ठ मुनि प्रेम के लाथ बोले । हे भरत ! जो तुम समझोगे, कहोगे और करोगे संसार में वही धर्म का सार (त. स्ववस्तु) होगा | दो०-खुलि लिख पाइ असील बड़ि, गनक बोलि दिन साधि । सिंहासन प्रक्षु प्रक्षु पादुका, बैठारे निरुपाधि ॥३२३॥ गुरुजी की शिक्षा सुन कर और बड़ा आशीर्वाद पा कर ज्योतिषियों को बुलवाया, सुन्दर दिन देख प्रभु के खड़ाउओं को निर्विन सिंहासन पर बैठाया ॥३२३॥ चौ०-राम-पातु गुरु-पद सिरनाई। प्रभु-पदपीठ रजायसु पाई। नन्दिगाँव करि परन-कुटीरा। कीन्ह निवास धरम-धुर-धीरा ॥१॥ रामचन्द्रजी की माता और गुरुजी के चरणों में सिर नवा कर, प्रभु रामचन्द्रजी के खड़ाउनओं की श्राशा पा कर धर्म के भार को उठाने में धीर भरतजी नन्दिप्राम में पत्तो की कुटी बना कर निवास करने लगे ॥१॥ जटाजूट सिर मुनि-पद धारी । महि खनि कुस साथरी सँवारी । असन बसन बासन ब्रत नेमा । करत कठिन रिषि-धरम सप्रेमा ॥२॥ सिर पर जटा का जूड़ा, शरीर पर मुनियों के वस्त्र धारण किये, धरती खोद उसमें कुश को श्राशनी विछा कर रहने लगे। भोजन, वस्त्र, पात्र, व्रत और नियम आदि कठिन ऋषिधर्म को प्रेम के साथ करते हैं ॥२॥