पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७३६

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। द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड ६५५ भूषन असन भोग सुख-भूरी । मन तन बचन तजे तिन तूरी ॥ अवधराज सुरराज लिहाई । दसरथ धल सुनि धनद लजाई ॥३॥ गहना, कपड़ा, और भोग-विलास के समूह सुख मन, शरीर और वचन से तिनके के समान सम्बन्ध तोड़ दिया। अयोध्या के राज्य को देख कर इन्द्र सिहोते हैं और दशरथजी के धन को सुन कर कुवेर लजाते हैं ॥३॥ इन्द्रलोक का राज्य और कुवेर की सम्पत्ति सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इन्द्र के खिहाने और कुबेर के लज्जित होने के सम्बन्ध से अयोध्या के राज्य और कोश को अतिशय बड़ाई करना 'लस्वधातिशयोक्ति अलंकार' है। तेहि पुर बसल भरल बिनु रागा। चचरीक जिमि चम्पक-बागा ।। रमा-बिलास राम-अनुरागी। तजत व्यमान जिमि जन बड़भागी ॥४॥ इस नगर में भरतजी एस प्रकार बिना ममता के रहते हैं, जैसे चम्पा के बाग में भ्रमर उदासीन भाव से निवास करता है । लक्ष्मी सम्बन्धी भोग-विलास को बड़े भाग्यवान रामा. नुरागी जन ऐसे त्याग देते हैं, जैसे लोग उलटो करके उसे घृणा के साथ त्याग देते हैं अर्थाः त् उस ओर प्टिपात फी इच्छा नहीं करते ॥३॥ ero-787#27576 भरत, बड़े न एहि करतूति चातक हल सराहियत, टेक विवेक विभूति ॥३२॥ भरतजी रामचन्द्रजी के प्रेमपात्र हैं, इस करनी से बड़े नहीं हैं। चातक और हंस के टेक तथा शान की महिमा सराही जाती है ॥३२॥ जब रामानुरागी मनुष्य रमा-विलास को वमन के समान त्याग देते हैं, तब रामचन्द्र- जी के प्रेमपान भरतजी के लिए लक्ष्मी के ऐश्वर्य से विरक्त होना कोई बड़ी बात नहीं काम्यार्थी पति अलंकार' है। चौ०-देह दिनहुँ दिल दूधरि होई। घटन तेज बल मुख छबि लाई । नितनवरात्र-प्रेम-पन पीना । बढ़त धरम-दल मन न सलीना॥१॥ दिनोंदिन देह दुबली होती जाती है, परन्तु वेज और बल नहीं घटता है। मुख की छवि वैसी ही है। रामचन्द्रजी के प्रेम की प्रतिक्षा नित्य नवीन हद हो रही है, धर्म की सेना बढ़ती है और मन कभी उदास नहीं होता ॥२॥ दिनोंदिन शरीर का दुर्बल होना तेज, वल और मुख की कान्ति घटने का कारण विद्यमान है। शरीर के दुर्बल होते हुए भी कार्य रूप उसका फल न प्रगट होना 'विशेषोक्ति अलंकार है। जिमि जल निघटत सरद प्रकासे । बिलसंत बेतस बनज विकासे। सम दम सज्जम नियम उपासा । नखत भरत-हिय बिमल अकासा ॥२॥ जैसे शरद के आगमन से पानी घटने लगता है, भामाश स्वच्छ हो जाता है और. . . । १