पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७३८

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६७७ । द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । पाप पुञ्ज कुञ्जर मृगशजू । समन सकल सन्ताप समाजू ॥ जन-रज्जन भजन अव-मारू । राम सनेह सुधाकर सारू ॥४॥ पापों के पुंज रूपी हाथी के लिए सिंह रूप है, सम्पूर्ण सन्तापों के समाज के लिए यमराज रूप ( नाशक) है । भक्तों के मन को प्रसन्न करनेवाला और संसार के भार को चूर चूर करनेवाला तथा रामचन्द्रजी के स्नेह रूपी चन्द्रमा का सार ( तत्व वस्तु अमृत ) है ॥४॥ हरिगीतिका-छन्द। सिय राम प्रेम पियूष पूरन, होत जनम को। मुनि मन अगम जम नियस सम दम, बिषम ब्रत आचरत को । दुख दाह दारिद दरूम दूषन, सुजस मिस अपहरत को कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि, राम सनबुख करत को ॥१३॥ यदि भरतजी का जन्म न होता तो सीताराम के प्रेम रूपी अमृत से पूर्ण मुनियों के मन को दुर्गम संयम, नियम, सम, दम और कठोर व्रत कौन फरता? अपने सुयश के बहाने दुःख की ज्याला, दरिद्रता अहङ्कार आदि दोषों को कौन हरता? इस कलिकाल में तुलसी के समान मूर्ख को हठ से रामचन्द्रजी के सन्मुख कौन करता? (कोई नहीं) ॥१३॥ सो०-भरत चरित करि नेम, तुलसी जे. सादर सुनहिँ । सीय-राम-पद प्रेम, अवसि होइ भव-रस बिरति. ॥ २६ ॥ तुलसीदासजी कहते हैं कि जो नियम करके (प्रतिदिन) आदर से भरतजी के चरित्र को सुनेंगे, उन्हें सीताराम के चरणों में प्रेम और संसार-सम्बन्धी विषयों के आनन्द से वैराग्य होगा ॥२६॥ इति श्रीरामचरितमानसे सकल कलिकलुष विध्वंसने विमल विज्ञान वैराग्य सम्पादनो नाम द्वितीयः सोपानः समाप्तः। यह समस्त कलियुग के पापों का नसानेवाला श्रीरामचरितमानस में सम्पादन नामवाला दूसरा सोपान समाप्त हुआ। बन्दन पाठक ने अपनी शङ्कावली में लिखा है कि अन्थकार ने लख काण्डों में इति लगाई परन्तु अयोध्याकाण्ड में नहीं। सूक्ष्मरीति से अरण्यकाण्ड के छठीं चौपाई पर इति लगाई है। अब गोस्वामीजी के हाथ की लिखी राजापुर की प्रति में वह वर्तमान है, तब न जाने पाठकजी को यह स्वप्न कैले छुभो ? अयोध्याकाण्ड का मूल पाठ हमने ठीक ठीक कविजी के हस्त कमल-लिखित प्रति के अनुसार हा रक्खा है, इसमें पागन्तर का कोई भ्रम नहीं है। शुभमस्तु-मङ्गलमस्तु वैराग्य का .