पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७३९

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श्रीगणेशाय नमः श्रीजानकीवल्लभा विजयते । श्रीमद् गोस्वामि तुलसीदास कृत चाखचरितमानस तृतीय सोपान अरण्यकाण्ड शार्दूलविक्रीड़ित-वृत्त । धर्मतरार्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं। वैराग्याम्बुजमारकर ह्यघधनं ध्वान्तापहं तापहम् ॥ मोहाम्भाधर पूगपाटनविधी स्वः सम्भवं शङ्कर । अन्दे ब्रह्माकुल ब्रह्माकुल कलशमनं श्रीरामभूपप्रियम् ॥१॥ धर्म रूपी वृक्ष के मूल, बान रूपी समुद्र को आनन्द देनेपाले पूर्ण चन्द्रमा, वैराग्य रूपी कमल के सूर्य, पाप-समूह रुपी अन्धकार को दूर करनेवाले, तीनों तापों के छुड़ानेवाले, अज्ञान रूपी बादलों की पाँति विच्छिश करने के लिए स्वतः उत्पन्न (पवन) ब्रह्माकुलवाले, कल के नाशक और श्रीराजा रामचन्द्रजी के प्यारे शङ्कर भगवान को मैं प्रणाम करता हूँ ॥२॥ सभा की प्रति से 'घघघनध्वन्तापह' और 'श्वासं भवं शङ्करं पाठ है। सान्द्रानन्दपयोदसीलगतनुं पीताम्बर पाणी बाणशरासनं कदिलसत्तूणीरभार वरम् ॥ राजीवायतलाचन धृतजटाजूटेन संशोभितं। सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥२॥ सघन आनन्द स्वरूप बादल के समान सुन्दर शरीर और मनोहर पीताम्बर पहने, हाथों में धनुष-बाण लिये, कमर में उत्तम पाणों से भरा तरकस शामित है । कमल के समान विशाख सुन्दर।