पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७५१

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रामचरित-मानस। चौ० अस कहि जोग-अगिनि तनु जारा । रामकृपा बैकुठ सिधारां । ता ते मुनि हरि लीन न भयऊ । प्रथमहिँ भेद-भगति बर लय ॥१॥ ऐसा कह कर योगाग्नि में शरीर जला दिया और रामचन्द्रजी की कृपा से वैकुण्ठ को चले गये । मुनि इसलिए भगवान् में लीन नहीं हुए कि उन्होंने पहले ही भेद-भक्ति (सगुन उपासक मोक्ष न लेही) का वर माँग लिया था ॥१॥ भेदभकि उसको कहते हैं जिसमें सेवक-लेव्य भाव का सिद्धान्त अटल रहता है। रिषि-निकाय मुनिबर-गति देखी । सुखी आये निज हृदय विसेखी ॥ अस्तुति करहिं सकल मुनि वृन्दा । जयति प्रनत-हितकरुनाकन्दा ॥२॥ ऋषि-समुदाय मुनिवर (शरमन) की गति देख कर अपने हृदय में अधिक सुखी हुर। सम्पूर्ण मुनि-मण्डली स्तुति करती है कि हे भक्तो के हितकारी, दया के मेध! आपकी जय हो ॥२॥ , शरमन मुनि की गति देख कर ऋषि समुदाय का अधिक प्रसन्न होना तुल्यप्रधान गुणी- भूत व्या है । मुनि के हितकारी हैं तो मेरा भी कल्याण करेंगे, यह व्यहार्थ वाच्यार्थ के बराबर है। पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिवर बन्द विपुल सँग लागे ॥ अस्थिसमूह देखि रघुराया । पूछा मुनिन्ह लागि अति दाया ॥३॥ फिर रघुनाथजी भागे वन में चले और बहुत से मुनिवरों का झुण्ड उनके साथ लग गया। रघुनाथजी ने हड़ियों की ढेरी देखी; तब उन्हें बड़ी दया लगी और मुनियों से पूछा (यहाँ हाड़ों का ढेर च्यों लगा है ? )॥३॥ करुणा-जनक दृश्य देख कर दयालु रघुनाथजी को ध्या का होना परिकर अलंकार' है। जानतहू पूछिन्च कस स्वामी । सबदरसी तुम्ह अन्तरजामी ॥ निसिचर-निकर सकल मुनि खाये। सुनि रघुनाथ नयन जल छाये ॥४॥ ऋषियों ने कहा- हे स्वामिन् ! जानते हुए आप क्यों पूछते हैं ? आप सब देखनेवाले और अन्तःकरण की बात जाननेवाले हैं। राक्षसों के समुदाय ने समस्त मुनियों को खाया है, यह सुन कर रघुनाथजी के नेत्रों में जल भर आया ten दो०-निसिचर हीन करउँ महि, झुज उठाइ पन कीन्ह । सकल मुनिन्ह के आसमन्हि, जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥६॥ रामचन्द्रजी ने भुजा उठा कर प्रतिज्ञा की कि पृथ्वी को मैं बिना राक्षसों की करूंगा। सम्पूर्ण मुनियों के आश्रमों में जा कर उन्हे सुख दिया ॥8॥ मुनि लोग राक्षसों का संहार चाहते ही थे, वही बात बिना किसी प्रयत्न के उनके आश्रम में जा जा कर रामचन्द्रजी ने पूर्ण करने का प्रण किया 'प्रथमप्रहर्षण अलंकार' है। . 4