पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७५५

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रामचरित मानस । संसय-सर्प असन उरगादः। समन उरगादः। समन सुकर्कस-तर्क-बिषादः ।। रजन-सुर-यूथः । त्रातु सदा नो कृपा-बरूथः ॥५॥ संशय रूपी साँप को प्रसने के लिये गरुड़, अत्यन्त कठोर तकों के दुःख के नसानेवाले, संसार की वाधा को चूर चूर करनेवाले, देवतावृन्द को प्रसन्न कारक, कृपा के राशि राम- चन्द्रजी सदा हमारी रक्षा कीजिये ॥५॥ निर्गुन-सगुन विषम-सम-रूपं । ज्ञान-गिरा-गोतीतमनूपं । अमलमखिलसलवद्यमपार । नौमि राम भजन-महि-भार ॥६॥ निर्गुण, सगुण, विषम और सम रूप, ज्ञान तथा इन्द्रियों से परे अनुपम हो । निर्मल सम्पूर्ण, निर्दोष, अत्यन्त, धरती का चोझ नसानेवाले रामचन्द्रजी को नमस्कार करता हूँ॥६॥ निर्गुण भी और सगुण भी, विषम रूप भी और सम रूप भी । इस वर्णन में विरोध सा .भासता है, किन्तु विरोध नहीं है, क्योंकि ईश्वर का रूप वेदों ने ऐसा ही वर्णन किया है। यह 'विरोधाभास अलंकार' है। सक्त-कल्पपादप-आराख: । तर्जन क्रोध-लोभ-मद-कामः ॥ अति-नागर भवसागर सेतुः । ब्रांतु सदा दिनकर कुल केतुः ॥७॥ भक्तों के लिये कल्पवृक्ष के बगीचा, क्रोध, लोभ, घमण्ड और काम को डरानेवाले, अत्यन्त चतुर, संसार रूपी समुद्र से पार करने के लिये लेतु, सूख्य कुल के पताका रामचन्द्र जी सदा मेरी रक्षा कीजिए ॥ ७॥ अतुलित-सुज-प्रताप-बल-धानं । कलिमल बिपुल बिभजन नामं ॥ धम बर्म नर्मद गुन-ग्रामं । सन्तत सन्तनोतु मम रामं ॥ श्राप की भुजानों का अतुलनीय प्रताप है वे वल को भागार है, आप का नाम अपरिमित पापों को नलानेवाला है। धर्म के लिये कवच रूप; जिनके गुण-समूह प्रानन्द देनेवाले हैं, पेखे रामचन्द्रजी सदा मेरा कल्याण कीजिए। जपि बिरज व्यापक अबिनासी । सब के हृदय निरन्तर बासी ॥ तदपि अनुज श्री सहित खरारी । बसतु मनसि मम कानन चारो ॥६॥ यद्यपि आप विशुद्ध, सर्वव्यापी, नाश रहित और सम के हृदय में निरन्तर बसनेवाले हैं। तथापि हे स्तर के शत्रु ! छोटे भाई लक्ष्मण और श्रीजानकीजी के सहित मेरे मन रूपी वन में विवास कर के विचरिये l पहले कह चुके कि आप सब के हृदय में सदा वलनेवाले सर्व व्यापक हैं । इस सामान्य कथन में 'काननचारी' द्वारा भेद प्रकट करना अर्थात् इस वन में विचरनेवाले.रूप से मेरे मन में वसिये 'विशेषक अलंकार' है । सरारी कहते हैं, परन्तु अभी स्वर का वध रामचन्द्रजी ने किया नहीं, भविष्य की बात को वर्तमान की भाँति कहना 'माविक अलंकार' है।