पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७५९

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रामचरित मानस । हाल नहीं जानते। उन फलों का खानेवाला कठिन भयंकर काल है, वह भी आप के भय से सदा डरता है ॥ ते तुम्ह सकल-लोकपत्ति-साँई। पूछेहु मोहि मनुज की नाँई ॥ यह बर माँगउँ कृपानिकेता । बसहु हृदय नो-अनुज-समेता ॥५॥ वही आप सम्पूर्ण लोकपालों के स्वामी मुझ से मनुष्य की तरह पूछते हो। हे कृपा निधान ! मैं यह पर माँगता है कि सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मण जी के सहित मेरे हदय में निवास कीजिये ॥५॥ . अबिरल भगति बिरति सतसडा । चरन-सरोरुह प्रीति अभङ्गा । जलपि ब्रह्म अखंड अनन्ता । अनुमव गम्य भजहिँ जेहि सन्ता ॥६॥ अवछिन्न-भक्ति, वैराग्य, सतसन्न-और चरण-कमलों में अटूट प्रेम दीजिये । पद्यपि आप ब्रह्म, अखण्ड, अनन्त हैं और शान से प्राप्त होनेवाले जिन्हें सन्तजन भजते हैं ॥३॥ अस तव रूप पखानउँ जानउँ । फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ॥ सन्तत दासन्ह देहु बड़ाई। ता तँ माहि पूछेहु रघुराई ॥ ७ ॥ ऐसा श्राप का कप वर्णन करता हूँ और जानता हूँ किन्तु फिर फिर सगुण ब्रह्म में प्रीति मानता हूँ । हे रघुनाथजी ! आप अपने सेवकों को सदा बड़ाई देते हैं, इसी से मुझ से पूछते हो ॥७॥ है प्रक्षु परम-मनोहर ठाऊँ। पावन पचवटी तेहि नाऊँ । दंडक-गन पुनीत प्रा करहू । उग्र-साप मुनिबर कर हरहू ॥६॥ प्रभो अत्यन्त मनोहर पवित्र स्थान है, उसका पञ्चवटी नाम है। स्वामिन् ! दण्डक वन को पवित्र कीजियो और मुनिवर के घोर शाप को हरिये ॥ राजा दण्डक इच्वाकु के छोटे पुत्र हैं, उन्होंने गुरु कन्या (रजा) से बलत्कार किया। उसने अपने पिता शुक्राचार्य से कह दिया। उन्होंने क्रुद्ध हो शाप दिया, राजा समाज सहित (ठा वन हुआ और दण्डकारण्य कहलाने लगा। पुराणों में एक यह भी कथा है कि गौतम मुनि के शाप से वह वन ,ठा होकर राक्षसों का निवासस्थान हुआ था। रामचन्द्रजी के पदार्पण से फिर हराभरा हो गया। बास करहु तह र धुकुल-राया। कीजिय सकल मुनिन्ह पर दाया ॥ चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहि पजुबदी नियराई ॥६॥ हे रघुकुल के राजा ! यहाँ निवास करके सम्पूर्ण मुनियों पर दया कीजिये । अगस्त्यमुनि की प्राक्षा पा कर रामचन्द्रजी चले और तुरन्त ही पञ्चवटी के समीप पहुंच गये ॥६॥ चलने के साथ ही तुरन्त पञ्चवटी के पास पहुंचना, कारण और कार्य का एक साथ वर्णन 'अक्रमातिशयोक्ति अलंकार' है। ।