पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७६०

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। तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । दो०-गीधराज साँ मैंट भइ, बहु विधि प्रीति दृढ़ाइ । गोदावरी निकट प्रभु, रहे परन-गृह छाइ॥ १३ ॥ गिद्धराज (जटायु) से भेंट हुई, उन से बहुत तरह प्रीति दृढ़ कर के प्रभु रामचन्द्रजी गोदावरी के समीप पचों की फुटी छा कर रहने लगे ॥१३॥ 'शुटका में 'बहु विधि प्रीति बढ़ाइ' पाठ है चौ०-जब तैं राम कीन्ह तह बासा । सुखी भये मुनि बीती नासा ।। गिरि बन नदी ताल छबिछाये। दिन दिन प्रति अति होहिँ सुहाये ॥१॥ जब से वहाँ रामचन्द्रजी ने निवास किया, स से मुनियों का डर जाता रहा वे सुखी हुए । पर्वत, बन, नदी और ताल सब में शोभा छा गई, वे दिन दिन बहुत ही सुहावने होने लगे ॥१॥ खग-मृग-वृन्द अनन्दित रहहीं। मधुप मधुर गुज्जत छबि लहहीं। सेो बन बरनि न सक अहिराजा । जहाँ प्रगट रघुधीर बिराजा ॥२॥ पक्षी और मृगों के झुण्ड आनन्दित रहते हैं, मधुर-ध्वनि से गुजार करते हुए भ्रमर शोभा पा रहे हैं। जहाँ प्रत्यक्ष रघुनाथजी विराजमान हैं, उस वन को वर्णन शेषनाग भी नहीं कर सकते ॥२॥ एक बार प्रक्षु सुख-ओसीना । लछिमन बचन कहे छल होना ।। सुर नर मुनि सचराचर साँई । मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई ॥३॥ एक बार प्रभु रामचन्द्रजी सुख-पूर्वक बैठे थे, लक्ष्मणजी छल रहित वचन बोले । हे देवता, मनुष्य, मुनि, जगम और स्थावर के स्वामी । मैं अपने मालिक की तरह आप से पूछता हूँ अर्थात् मैं शबोध सेवक हूँ और आप सर्वज्ञ स्वामी हैं, इसलिए पूछता हूँ ॥३॥ 'छल-हीन' शब्द में शक्षा होती है कि क्या पहले लक्ष्मणजी छल-युक्त वचन कहते थे ? उत्तर-मानी हुई बात को परीक्षार्थ पूछना छलमय है, लक्ष्मणजी सब बात जानते थे, स्वामी से पूछ कर उसे और भी निश्चय करना चाहते हैं । परीक्षार्थ प्रश्न नहीं किया है, इसी से छल-हीन कहा है। भोहि समुझाइ कहहु साइ देवा । सब तजि करउँ चरन-रज सेवा ॥ कहहु ज्ञान बिराग अरु माया । कहहु सो भगति करहु जेहि दाया॥४॥ हे देव ! मुझे वह समझा कर कहिये जिससे सब छोड़ कर मैं आप के चरण को धुलियों का सेवन करूं । ज्ञान, वैराग्य और मायां का निरूपण कीजिये और वह भक्ति कहिये जिससे आप दया करते हैं ॥ ४॥