पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७७६

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तृतीय, सोपान, अरण्यकाण्ड । ७१५ अचन-महि-शारा । जैौँ भगवन्त लीन्ह अवतारा ।। तो मैं जाइ बयर हठि करऊँ । प्रभु सर मान तजे भव तरऊँ 1120 देवताओं को प्रसन्न करनेवाले भगवान् ने यदि धरती का बोझा चूर चूर करने के लिए जन्म लिया है तो मैं जा कर हठ से शत्रुता करूँगा, स्वामी के बाणों से प्राण त्याग कर संसार ले पार हो जाऊँगा ॥२॥ रावण का शङ्का निवारणार्थ विचार करना 'वितर्क सञ्चारीभाव है। होइंहि भजन न तासस-देहा । मन क्रम बचन मन्त्र दृढ़ एहा ॥ जौँ नर-रूप भूप-सुत कोऊ । हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ ॥३॥ तमोगुणी शरीर (राक्षस-तनु) से भजन न होगा, मन, कर्म और वचन ले यही मत पक्का है। यदि मनुष्य रूप में कोई राजयुम्न होंगे तो दोनों को लड़ाई में जीत कर स्त्री को हर लूँगा ॥३॥ जो ईश्वर अवतरे होगे ते उनके बाएं से प्राण त्याग कर संसार से पार होऊँगा जो मनुष्य राजा होंगे तो रण में जीत कर स्त्री हर लूँगा। यह निश्चय न होना कि ईश्वर हैं मनुष्य, संशय बना पहना सन्देह अलंकार' है। चला अकेल जान चढ़ि तहवाँ । बस मारीच सिन्धु-तट जहवाँ । इहाँ राम जलि जुगुति बनाई । सुनहु उमा सो कथा सुहाई ॥४॥ प्रकले विमान पर चढ़ कर वहाँ चखा जहाँ समुद्र के किनारे मारीच रहता था। शिवजी कहते हैं-हे उमा ! वह सुन्दर कथा सुनो, जैसी युक्ति यहाँ रामचन्द्रजी ने रची ॥४॥ दो-लछिमन गये नहिं जब, लेन-मूल-पाल-कन्द । जनक-सुसा सन बोले, बिहँसि छपा-सुख-चन्दं ॥२३॥ जब लक्ष्मणजी न में कन्द, मूल, फल लेने गथे, तब जनक-नन्दिनी से हँस कर कृपा और सुख के समूह रोमचन्द्रजी बोले ॥२३॥ चौ०-सुनहु प्रिया व्रत-रुचिरं सुसीला। मैं कछु करब ललित नर लीलो । तुम्ह पावक महँ करहु निवासा। जौँ लगि करउँ लिसाचर नासा॥१॥ हे सुन्दर तवाली प्रिये, सुशीले ! सुनो, मैं कुछ सुहावनी मनुष्य लीला करूँगा। तुम तव तक अग्नि में निवास करो जब तक मैं राक्षसों का विनाश न कर डालूँ ॥१॥ जयहि राम सन कहा बखानी । प्रभु पद धरि हिय अनल समानी ॥ निज प्रतिबिम्ब राखि तहँ सीता । तैसइ सील रूप सुबिनीता ॥२॥ जब रामचन्द्रजी ने सष बखान कर कहा, तब स्वामीके चरणोंको हदय में रख कर अग्नि मैं समा गई । सीताजी ने अपना प्रतिविम्ब वहाँ रख छोड़ा, वैसा ही शील, शोभा और