पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७७८

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म तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ७१७ वाण से मुझे मारा । मैं क्षण भर में चार सौ कोस भा गया, उनसे वैर करने में अच्छा नहीं है॥ ३॥ भइ सम कीट भृङ्ग की नाई। जहँ तह मैं देखउँ दोउ मोई॥ जी नर तात तदपि अति सूरा । तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा ॥४॥ मेरी दशा कीड़े और भंवरी की तरह हुई, जहाँ तहाँ मैं दोगों भाइयों को देखता था । हे तात ! यदि वे मनुष्य ई तो भी बड़े शूरवीर हैं, उन ने विरोध करने में पूरा न पड़ेगा men भ्रमरी (विलनी) एक प्रकार की मक्खी है। वह अण्डा नहीं देती, छोटे कीड़ों को अपनी छात में उठा लाती है और उसको काट कूट अधमरा कर के ऊपर से भनभनाने लगती है। भय विहल कीड़े को सारा जगत भ्रमरी मय दीखने लगता है। अन्त को वह भी भ्रमरी रूप हो जाता है। बस यही उस मक्खी का रहा देना है। दो०-जेहि ताड़का सुबाहु हति, खंडेउ हर-को दंड । खर-दूषन-त्रिसिरा-बधेउ, मनुज कि अस बरिवंड ॥२५॥ जिन्हों ने ताड़का और सुवाहु को मार डाला, शिवजी के धनुष को तोड़ा। खर, दूषण और निशिरा का वध किया, फ्या मनुष्य ऐसा बलवान होगा ? (कदापि नहीं) ॥२५॥ इतना बली मनुष्य नहीं होता, ये ईश्वर हैं । बात ही में यह व्यङ्ग निकलना वाच्यसिद्धान गुणीभूत व्या है। चौ० जाहु भवन कुलकुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हेसि बहु गारी। गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बाधा। कहु जग मेाहि समान को जोधा॥१॥ अपने कुल का कल्याण विचार कर घर लौट जाइये, सुन कर रावण जल उठा और मारीच को बहुत सी गालियाँ दी। कहने लगा-अरे मूर्ख ! तू.गुरु जैसा मुझे ज्ञानोपदेश करता है भला यह तो कह कि संसार में समान कौन योद्धा है?॥१॥ परोत्कन सह सकना और चल में दूसरों की अपेक्षा अपने को सर्वोपरि समझना असूया तथा गर्व सञ्चारी भाव है। तब मारीच हृदय अनुमाना। नवहि बिरोधे नहिं कल्याना ॥ सस्त्री मर्मी प्रक्षु सठ धनी । बैद बन्दि कवि मानख-गुनी ॥२॥ तव मारीष ने मन में विचारा कि नव से विरोध करने में कल्याण नहीं होता । (१) शस्त्र- धारी, (२) भेदिया अर्थात् अपनी छिपी वातों को जाननेवाला, (३) स्वामी, (४) दुष्ट वा मूख', (4) धनवान् , (६। वैद्य, (७) बन्दीजन, (E) कवि और (8) मन की बात जानने में गुणी (देव)॥२॥ उभय भाँति देखा निज मरना । तब ताकेसि रघुनायक सरना । उत्तर देत माहि बघब अभागे । कस न सरउँ रघुपति-सर लागे ॥३॥ जब दोनों तरह से अपना मरण देखा, तब रघुनाथजी की शरण जाना निश्चय किया।