पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७७९

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. ७१८ रामचरित मानस । मारीच ने मन में सोचा कि उपर देते ही भागा-रावण मुझे मार डालेगा तो रघुनामजी के घाण लगने से क्यों न मर॥३॥ अस जिय जानि दसानन सङ्गन । चला राम-पद-प्रेम असका। मन अति हर्ष जनाच न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही ran पेसा मन में समझ कर रावण के साथ चला और रामचन्द्रजी के चरणों में प्रखर प्रेम उत्पन्न हुना। उसके मन में बड़ी प्रसन्नतो है; परन्तु उस हर्प को रावण की नहीं प्रकट होने दिया, विचारता जाता था कि आज परमस्नेही राधव को देखू गा॥४॥ मारीच प्रेम से उत्पन्न हर्ष को रावण ले इस लिए छिपाया कि वह दुष्ट जान लेने पर वध कर डालेगा 'श्रवाहित्य संचारी भाव है। हरिगीतिशा-छन्द। निज परम प्रीतम देखि लोचन, सुफल करि सुख पाइहैं। नो सहित अनुज समेत कृपानिकेत-पद मन लाइहौँ । निर्बान-दायक क्रोध जा कर, अगति अबसहि बस करी। लिजपानि सर सल्धानि सो मोहि, बधिहि सुखसागर हरी ॥८॥ अपने परम प्यारे को देख आँखों को सफल कर के सुख पाऊँगा। सीताजी और छोटे भाई लचमणजी के सहित कृपानिधान के चरणों में मन लगाऊँगा। जिनका क्रोध मोक देनेवाला है और जिनकी भक्ति अवश (ईश्वर) को वश में करती है, वही सुख के समुद्र भगवान् अपने हाथ ले वाण सन्धान कर मुझे मारेंगे ॥ ८॥ दो मम पाछे घर धावत, सरासन बान। फिरि फिर प्रक्षुहि विलोकिहउँ, धन्य न मा सम आन ॥२६॥ मेरा पीछा पक्ड़े धनुष वाण लिये दौड़गे, मैं फिर फिर कर स्वामी को देखंगा; मेरो बरावरी का दूसरा कोई धन्य नहीं है ॥ २६ ॥ चौध-तेहि बन्न निकट दसानन गयऊ । तब मारीच कपट-मुग भयका । अति विचित्र कछु बरनि न जाई। कनक-देह मनि रचित बनाई ॥१॥ जब रावण उस वन के समीप गया, तब मारीच छल से मृग बन गया। वह बड़ी विलक्षण कुछ वर्णन नहीं किया जाता, सुवर्ण का शरीर रत्नों से जड़ा हुआ बनाया ॥१॥ सीता परम रुचिर मृग देखा । अङ्ग अङ्ग-सुमनोहर-बेखा । सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति-सुन्दर छाला १२५ सीताजी ने अत्युत्तम सुन्दर मृग को देखा, उसके अङ्ग अङ्ग के वे अतीव मनोहर थे। उन्होंने रामचन्द्रजी से कहा-हे कृपालु रघुवीर देव ! सुनिये, इस मृग का बम, बहुत सहावना है ॥२॥