पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७२०. रामचरित मानस जो राक्षस जन्म का पापी था, वह क्षण मात्र के प्रेम ले नाम स्मरण कर के उस गति को प्राप्त हुना जो मुनियों को दुर्लभ है । यह 'द्वितीय विशेष अलंकार है। दो० विपुल सुमन सुर बरपहि, गावहिं प्रभु-गुन-गाथ । निज-पद दीन्ह असुर कह, दीनबन्धु. रघुनाथ ॥२७॥ देवता बहुत सा फूल बरसते हैं और प्रभु रामचन्द्रजी के गुणों को कथा गान करते हैं कि रघुनाथजी दोनों के सहायक हैं, तभी राक्षस को अपना पद दिया है ॥२७॥ चौं-खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा । सेोह चाप कर कटि तूनोराः ॥ आरत गिरा-सुनी जब सीता । छह लछिमन सन परम सभीता ॥१॥ दुष्ट राक्षस का वध कर के रधुनाथजी तुरन्त लौट उनके हाथ में धनुष और कमर में तरफल शोभित हो रहा है। जब सीताजी ने दीन वाणी सुनी तब, वे अत्यन्त अयभीत होकर लक्ष्मणजी से कहने लगी ॥१॥ सीताजी ने मारीच की भारी वाणी को चम से रामचन्द्रजी का पुकारना समझा, यह 'मान्ति अलंकार है। जाहु बेगि सङ्कट अति माता । लछिमन बिहँखि कहा सुनु माता ॥ भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई । संपनहुँ सङ्कट परइ कि साई ॥२॥ तुम्हारे भाई बड़े संकट में हैं, जल्दी जाओ, लक्ष्मणजी ने हँस कर कहा-हे माता! सुनिये । जिनकी भृकुटी के घुमाने से ब्रह्माण्ड का नाश होता है, क्या उनको स्वप्न में भी सङ्कट पड़सकता है ? (कदोपि नहीं)॥२॥ मरम बचन जब सीता बाली । हरि प्रेरित लछिमन मति डोली ॥ बन-दिसि-देव सौपि सब काहू । चले जहाँ रावन-शखि-राहू. ॥३॥ जब सीताजी ने भेदकी बात कही, तब भगवान की प्रेरणा से लक्ष्मएजी का मन डगमग हो गया। उन्होंने वन और दिशा के देवताओं को सौंप कर जहाँ रावण रूपी चन्द्रमा को ग्रसने वाले राहु ( रामचन्द्रजी) हैं वहाँ चले ॥३॥ सीताजी ने मर्म की बात कही, जिससे लक्ष्मणजी का मन डोसा गया । पर उस बात - को प्रत्यक्ष न कह कर सन्दिग्ध गुणीभूत व्यङ्ग है । पण्डित रामवकल पाण्डेय की प्रति में उपर्युक्त पाठ है और व्याकरण की. रीति से यही शुद्ध प्रतीत होता है; किन्तु गुटका और सभा की प्रति में 'सीता बोला-लछिमनमन डोलो' पाठ है। सून बीच दसकन्धर देखा। ओवा निकट जती के चेखा। जा के डर सुर असुर डेराहीं । निसि न नींद दिन अन्न न खाहीं ॥४॥ इसी बीच में रावण ने सुना देला, तब सन्यासी के भेष में सीताजी के समीप पाया