पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ७२७ मरते समय जिनका नाम मुख से निकलने पर वेद कहते हैं कि अधम भी हो तो उसकी मुक्ति हो जाती है ॥३॥ सो मम लोचन. गोचर भागे। राखउँ देह नाथ केहि खाँगे ॥ जल भरि नयन कहिँ रघुराई । सात करम निज ते गति पाई ॥४॥ वही (परमात्मा) मेरी आँखों के सामने खड़े हैं, हे नाथ ! अब क्या कमी है जिसके लिये शरीर रक्खू ? नेत्रों में जल भर कर रघुनाथजी कहते हैं-हे तात? श्राप ने अपने कर्म से अच्छी गति पाई है ॥४॥ परहित बल जिन्ह के मन माहीं । तिन्ह कह जग दुर्लभ कछु नाहीं॥ तजि तात जाहु मम धामा । देउँ काह, तुम्ह पूरनकाला ॥५॥ जिनके मन में परोपकार बसता है, उनको संसार में कुछ भी दुलभ नहीं है । हे तात ! शरीर त्याग कर आप मेरे धाम (वैकुण्ठ) को जाइये, मैं क्या दूँ, आप के हृदय में किसी वस्तु की इच्छा नहीं है ॥५॥ आपने अपने कर्म से गति पाई-इस बात की पुष्टि हेतु-सूचक बात कह कर करना कि जिनके मन में परोपकार बसता है, उनको जगत में कुछ भी दुर्लभ नहीं 'काव्यलिङ्ग भलं. दो-सीता-हरन तात जनि, कहेहु पिता सन जाइ । जाँ मैं राल त कुल सहित, कहिहि दसानन आङ् ॥३१॥ हे तात ! सीताहरण पिताजी से जाकर मत कहना । जो मैं राम हूँ तो परिवार सहित रावण स्वयम् आकर कहेगा ॥३१॥ रामचन्द्रजी ने सीधे यह नहीं कहा कि मैं रावण को माऊँगा। उसी बात को धुमा कर कहते हैं कि यदि मैं राम हूँ तो सकुटुम्ब भा कर रोवण ही कहेगा 'प्रथम पायोक्ति अलंकार' है। ची-गोध देह तजि धरि हरि रूपा । भूषन बहु पट पीत अनूपा ॥ स्याम-गात बिसाल भुज-चारी। अस्तुति करत नयन नरिबारी॥१॥ गीध ने शरीर त्याग कर भगवान का रूप धारण किया, बहुत से आभूषण और अनुपम पीताम्बर पहने हुए, श्यामल शरीर और विशाल चार भुजायें हैं, नेत्रों में जल भर कर स्तुति करने लगा ॥१॥ हरिगीतिका-छन्दद। जय राम रूप अनूप निर्गुन, सगुन गुन प्रेरक सही। दससीस बाहु-प्रचंड-खंडन, चंड-सर मंडन मही । पायोद-गात सरोज-मुख राजीव आयत लोचनं । नित नौमि राम कृपाल बाहु बिलास सव-भय मोचनं ॥६॥ हे रामचन्द्रजी! आप का रूप अनुपम है, सगुण भौर निर्गुण स्वरूप; स्वच्छ गुणों के