पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८०४

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1 तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ७३१ पडित रामबक्स पांडेय की प्रति में 'तह राखा जननी अरगाई पाठ है । इसका अर्थ उन्हों ने इस प्रकार किया, कि-"जैसे बालक आग और लाँप धरने लगता है तहाँ उसकी माता श्रलगा लेती है नहीं पकड़ने देती" पर रामचरित मानस में जहाँ जहाँ 'अरगाई' शब्द श्राया है, वहाँ 'चुप होने के सिवा अलगाना अर्थ नहीं ग्रहण होता है। गुटका और सभा की प्रति में उपर्युक्त पाठ है प्रौढ़ आये पर सुत तेहि माता । प्रीति करइ नहिं पाछिल बाता ॥ मारे प्रौढ़-तनय-सम ज्ञानी । बालक-सुत सम दास अमानी ॥४॥ उन्धी पुत्रों को जवान होने पर पहले की तरह माता प्रेम नहीं करती। मेरे शानदान भक्त युवा पुत्र के समान हैं और निरभिमानी भक छोटे बालक के समान हैं ॥४॥ जनहिँ मेर बल निज-बल ताही । दुहुँ कह काम काध रिपु आही । यह बिचारि पंडित माहि मजही। पायेहु ज्ञान भगति नहिं तजहीं ॥३॥ भक्त को मेरा बल और ज्ञानियों को अपना बल रहता है, परन्तु काम और क्रोध दोनों हैं। यह विचार कर पण्डित लोग मुझे भजते हैं; वे ज्ञान पाने पर भक्ति को नहीं ही के शत्र, छोड़ते ॥५॥ भक्त और शानी दोनों मेरे पुत्र हैं । अन्तर इतना ही है कि भक्तों को हर बातों में मेरा चल रहता है और शानियों को अपने ज्ञान का बल 'विशेषक अलंकार' है। दो-काम क्रोध लामादि पद, प्रबल माह के धारि । तिन्ह महँ अति दारुन दुखद, माया रूपी नारि ॥४३॥ काम, क्रोध, लोभ और अहंकार आदि बड़ी प्रबल मोह की सेना हैं । उसमें अत्यन्त भीषण दुखदाई माया रूपिणी स्त्री है ॥४३॥ चौ०-सुनु मुनि कह पुरान सुति सन्ता। मोह विपिन कहँ नारि बसन्ता। जप तप नेम जलासय भारी । होइ ग्रीषम सोखइ सब नारी ॥१॥ हे मुनि सुनिये, पुराण वेद और सन्त कहते हैं कि मोह रूपी धन के लिए सी वसन्त- ऋतु रूपिणी है । जप, तप और नियमादि समूह जलाशय (नदी, तालाब, बावली, कूप) हैं, सन को स्त्री प्रीस्म ऋतु होकर सोख लेती है ॥१॥ काम क्रोध मद मत्सर भेका । इन्हहिँ हरप-प्रद बरषा एका ॥ दुर्वासना कुमुद समुदाई । तिन्ह कह सरद सदा सुखदाई ॥२॥ काम, क्रोध, मद और मात्सर्य्य आदि मेढकों के लिये हर्ष प्रदान करनेवाली एक स्त्री वर्षाऋतु रूपिणी है। दुर्वासना (बुरी इच्छा) रूपी कुमुदों के समुदाय को सदा सुख देनेवाली रवी शरहतु-रूपिणी है ॥२॥