पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८२३

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रामचरित-मानस । मारा (यह कौन सी धर्म-रक्षा है ?) हे नाथ ! मैं वैरी और सुग्रीव प्योरा हुआ ? कौन से अपराध के कारण श्राप ने मुझे मारा है ? ॥३॥ धर्म के लिए अवतार लेना और अधर्म का काम करना अर्थात् प्रथम सङ्कल्प के विरुद्ध कार्य तृतीय श्रसङ्गति अलंकार' है। अनुज-बधू भगिनी सुत-नारी । सुनु सठ कन्या सम ये चारी । इन्हहिँ कुदृष्टि बिलोकइ जोई । ताहि बधे कछु पाप न हाई ॥४॥ रामचन्द्रजी ने कहा-अरे मूर्ख ! सुन, छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्रवधू और लड़की ये चारों बराबर हैं । जो कोई इन्हें तुरी निगाह से देखता है, उसको मार डालने से कुछ भी पाप नहीं होता ॥४॥ चारों का एक ही धर्म कथनां प्रथम तुल्ययोगिता अलंकार' है। मूढ़ ताहि अतिसय अभिमाना । नारि सिखावन करेसि न काना । मम भुजबल आलित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी ॥५॥ अरे सूखं ! तुझे बहुत बड़ा अभिमान है, तू ने स्त्री के सिखाने पर कान नहीं दिया! क्यों रे नीच घमण्डी ! सुग्रीव को मेरी भुजाओं के दल से रक्षित जान कर भी उसे मारना चाहता था ? दो०-सुनहु राम स्वामी सन, चल न चातुरी मारि । प्रभु अजहूँ म पापी, अन्तकाल गति तारि ॥९ वाली ने कहा-हे रामचन्द्रजी! मुनिये, स्वामी से मेरी चतुराई नहीं चल सकती । पर हे स्वामी ! मैं अब भी पापी हूँ जब कि अन्तकाल में आप की गति प्राप्त हुई है ? ॥8॥ चौ०-सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी । अचल करउँ तनु राखहु प्राना । बालि कहा सुनु.कृपानिधाना ॥१॥ अत्यन्त कोमल वाणी सुनते ही रामचन्द्रजी ने बाली के सिर पर अपना हाथ स्पर्श करके कहा कि मैं तुम्हारे शरीर को अचल कर दूँ, तुम प्राण रक्खो । बाली ने कहा- हे कृपा निधान ! सुनिये ॥१॥ जनम जनम मुनि जतन कराहीँ । अन्त राम कहि आवत नाही । जासु नाम बल सङ्कर कासी । देत सबहि सम गति अबिनासी ॥२॥ जन्म जन्मान्तर मुनि लोग यत्न करते हैं, पर जिन रामचन्द्रजी का अन्त कहने में नहीं श्राता और जिनके नाम के बल से शिवजी काशी में सब को समान अक्षय गति (मोक्ष) देते हैं ॥२॥ 'अन्त राम कहि श्रावत नाही' इस चौपाई का लोग कई तरह से अर्थ करते हैं। जैसे- अन्त में राम कह कर फिर वे संसार में नहीं आते। अथवा मुनि लोग जन्म जन्म यत्न करते ,