पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८२६

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चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड । ७६१ अन्नद को युवराज पद इसलिए दिया कि जिसमें सुप्रीप के पीछे अगद ही राज्याधिकारी हो । अन्त समय में बाली बाँह पकड़ा गया था, उसका निर्वाह स्वामी की ओर से हुआ है। चौ०-उमा राम सम हित जग माहीं। गुरु पितु मातु बन्धु प्रभु नाहौँ । सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥१॥ शिवजी कहते हैं-हे पार्वती ! संसार में रामचन्द्रजी के समान हितकारी गुरु, पिता, माता, भाई और मालिक कोई नहीं है । देवता, मनुष्य और मुनि सब की यह रीति है कि ये सब अपने मतलय के लिए प्रेम करते हैं (निःस्वार्थ प्रेम केवल रामजी करते हैं)॥१॥ बालि त्रास ब्याकुल दिन राती । तन बहु ब्रन चिन्ता जर छाती॥ साइ सुग्रीव कीन्ह कपिराज । अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ ॥२॥ जो बाली के डर से दिन रात व्याकुल रहता था, शरीर में बहुत से फोड़े हुए और चिन्ता से छाती जलती थी, उसो सुग्रीव को वानरों का राजा बना दिया, रघुनाथजी स्वभाव से ही बड़े दयालु हैं ॥२॥ जानतहूँ अस प्रभु परिहरही । काहे न बिपति-जाल नर परहीं। पुनि सुग्रीवहिं लीन्ह बोलाई । बहु प्रकार नृप-नीति सिखाई ॥३॥ जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी को त्याग देते हैं, वे मनुष्य विपत्ति के जाल में क्यों न पड़ेंगे ? (अवश्य पड़ेंगे)। फिर जुमोव को बुला लिया और बहुत प्रकार की राजनीति सिखायी ॥३॥ कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा । पुर न जाउँ दस-चारि बरीसा॥ गत ग्रीषम बरषा-रितु आई । रहिहउँ निकट सैल पर छाई ॥४॥ प्रभु रामचन्द्रजी ने कहा-है वानरराज सुग्रीव ! सुनिए, मैं चौदह वर्ष तक नगर में न जाऊँगा । ग्रीष्म ऋतु गई और वर्षा ऋतु आई है, पास ही पर्वत पर कुटी छा कर रहूँगा अगद सहित करहु तुम्ह राजू । सन्तत हृदय धरेहु मम काजू॥ जब सुग्रीव भवन फिरि आये । राम प्रबरषन गिरि पर छाये ॥५॥ तुम अङ्गद समेत राज्य करो, पर मेरे कार्य को सदा हदय में रखना । जप सुग्रीव घर लौट आये, त रामचन्द्रजी ने प्रवर्षण पहाड़ पर डेरा किया ॥५॥ दो०-प्रथमहिं देवन्ह गिरिगुहा, राखी रुचिर बनाइ । राम कृपानिधि कछुक दिन, बास करहिंगे आइ ॥१२॥ देवताओं ने पहले ही पर्वत में सुन्दर गुफा बना रखी थी। उन्हें यह मालूम था कि कृपानिधान रामचन्द्रजी आ कर कुछ दिन यहाँ निवास करेंगे ॥ १२ ॥ ५६